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तत्त्वनिर्णयप्रासादतथा बकुशनिथमें सामायिक, और च्छेदोपस्थापन, यह दो संयम दिगंबराचार्योंने माने हैं. । तथाहि ॥
"पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीलाःद्वयोः संयमयोः सामायिकच्छेदोपस्थापनयोभवति ॥” इतिराजवार्तिकटीकायाम् ॥
तथा ज्ञानार्णवमें शय्या, आसन, उपधान (तकीया) आदि, मुनिकी उपधि कही है; जो पाठ ऊपर लिख आए हैं। इत्यादि कितनेही दिगं. बरशास्त्रोंमें मुनिकी अनेक प्रकारकी उपधि कही है. ऐसें उपकरण रखनेसें दिगंबरमतका मुनि तो, परिग्रहधारी नहीं हुआ, और श्वेतांबरमतका मुनि, चतुर्दशादि उपकरण रक्खे, तिसको परिग्रहधारी मानना, यह मतां. धपणा नही तो, अन्य क्या है ? _और दिगंबराचार्योंको द्रव्यक्षेत्रकालभावकी अनभिज्ञता होनेसें, और अनुचित कठिन मुनिवृत्तिके कथन करनेसें, प्रथम तो मुननी, अर्थात् साध्वी व्यवच्छेद होगई; पीछे साधु व्यवच्छेद होगए. आचार्योपाध्यायका तो कहनाही क्या है !!! और श्वेतांबरमतमें तो, श्रीमहाबीरजीसें लेके आजतांइ अव्यवच्छिन्न चतुर्विध संघ चला आता है. और बकुशकुशील इस कालमें जे पाइये हैं, तिनका आचार, व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र) आदि शास्त्रोंमें कथन करा है, तैसें आचारके पालनेवाले साधु साध्वी सांप्रतिकालमें भी उपलब्ध होते हैं. इस हेतुसें दिगंबरशास्त्रोंकी असत्यता, और श्वेतांबरके शास्त्रोंकी सत्यता, प्रत्यक्ष प्रमाणसेंही देख लो; अन्यप्रमाणकी कुछ आवश्यकता नहीं है.
प्रश्नः केवली कवलाहार नहीं करता है, और तुम केवलीको कवलाहार मानते हो, सो, किस प्रमाणसें मानते हो ?
उत्तरः-आगमप्रमाणसे मानते हैं. क्योंकि, श्रीतत्त्वार्थसूत्रमें परिषहोंका अधिकार चला है, तहां केवली-जिनके क्षुधापिपासादि इग्यारें परिषह कहे हैं, और तुमारे मतकी द्रव्यसंग्रहकी वृत्तिमें चारित्रके अधिकारमें कहा है कि, तीन योगोंका व्यापार जिन
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