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त्रयस्त्रिंशः स्तम्भः ।
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श्रद्धाकरके उपाश्रय प्राप्त कर देना ४; च शब्द वक्ष्यमाण गृहस्थधर्मके समुच्चय वास्ते है. ॥
तथा । राजवार्त्तिकमही । यताः ॥
॥ धर्मोपकरणानां ग्रहणविसर्जनं प्रति यतनमादाननिक्षेपण समितिः ॥७॥” धर्माविरोधिनां परानुपरोधिनां द्रव्याणां ज्ञानादिसाधनानां ग्रहणे विसर्जने च निरीक्ष्य प्रपूज्य प्रवर्त्तनमादाननिक्षेपणासमितिः ः ॥
भाषार्थः - धर्म के अविरोधी, परके अनुपरोधी, ज्ञानादिके साधन, ऐसें द्रव्योंके ग्रहणमें और त्यागमें देखके और प्रमार्जन करके प्रवर्त्तना, सो आदाननिक्षेपणासमिति है. ॥
तथा राजवार्त्तिकही । यतः ॥
"|| संसक्तान्नपानोपकरणादिविभजनं विवेकः ॥ " संसक्तानामन्नपानोपकरणादीनां विभजनं विवेक इत्युच्यते ॥ भावार्थ:- संसक्त जीवोत्पत्तिवाले अन्न, पाणी, उपकारणादिकोंका
त्याग करना ( परठना ), सो विवेक कहिये हैं. ॥
तथा राजवार्त्तिकही पांच प्रकारके निग्रंथोंका स्वरूप लिखा है, तिनमें बकुशका स्वरूप ऐसें लिखा है । यतः ॥
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“ ॥ बकुशो द्विविधः उपकरणवकुशः शरीरवकुशश्चेति ॥ " तत्र उपकरणाभिष्वक्तचित्तो विविधविचित्र परिग्रहयुक्तः बहु विशेषयुक्तोपकरणकांक्षी तत्संस्कारप्रतीकारसेवी भिक्षुरुप - करणवकुशो भवति शरीरसंस्कारसेवी शरीरबकुशः ॥
भाषार्थः - बकुश दोप्रकारका होता है, उपकरणवकुश १, और शरीरबकुश २; तिनमें जो उपकरणों में रक्त चित्तवाला नाना प्रकार के विचित्र परिग्रहयुक्त, बहुत सुंदर उपकरणोंका इच्छक, और तिन उपकरणोंका संस्कार प्रतिकार करनेवाला, भिक्षु साध, सो उपकरणकुश होता है; और शरीरका संस्कार करनेवाला, शरीरवकुश होता है. ॥
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