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त्रयस्त्रिंशःस्तम्भः। भाषार्थः-मेरा अर्पण करा हुआ कपूरचंदन, हे जिनेंद्र! तुमारे चरणकमलमें सम्यक् आश्रय करता है. इत्यादि* ॥
तथा त्रैलोक्यसारमें लिखा है.। यतः ॥
"॥ चंदणाहिसेयणचणसंगीयवलोयमंदिरेहिंजुदा __कीडणगुणणगिहहिअविसालवरपट्टसालाहिं ॥" भाषार्थः-चंदनकरके अभिषेक नृत्य संगीत अवलोकन मंदिरमें युक्त क्रीडाकरण गुणणा गृहस्थोंने विशालप्रधान पदृशालांकरके ॥
तथा तत्वार्थसूत्रकी राजवार्तिक नामा अकलंकदेवकृत टीकामें लिखा है कि, मंदिरका गंधमाल्य (पुष्पमाला) धूपादि जो चुरावे, सो अशुभनाम कर्म उपार्जन कर.
तथाहि ॥ “॥मिथ्यादर्शनपिशुनतास्थिरचित्तस्वभावताकूटमानतुलाकरणसुवर्णमणिरत्नाद्यनुकृतिकुटिलसाक्षित्वांगोपांगच्यावनवर्णगंधरसस्पर्शान्यथाभावनयंत्रपंजरक्रियाद्रव्यांतरविषयसंबंधनिकृतिभूयिष्ठतापरनिंदात्मप्रशंसानृतवचनपरद्रव्यादान. महारंभपरिग्रहोजवलवेषरूपमदपरूषासत्यप्रलापाकोशमौख. र्यसौभाग्योपयोगवशीकरणप्रयोगपरकुतहलोत्पादनालंकारादरचैत्यप्रदेशगंधमाल्यधूपादिमोषणविलंबनोपहासेष्टकापाकदवाग्निप्रयोगप्रतिमायतनप्रतिश्रयारामोद्यानविनाशतीव्रक्रोधमानमायालोभपापकर्मोपजीवनादिलक्षणः स एष सवोशुभस्य नाम्नः॥"
अब विचार करना चाहिये कि, गंध पुष्प मालादि चढावनेही नहीं; ऐसा होवे तो, मंदिरमें गंधमाल्यधूपादि कहांसें आवेंगे ? और तिनके वि
- * पूर्वोक्त काव्यकी टीकामें ऐसें लिखा है-अनेन वृत्तेन चंदनं प्रक्षिप्यते टीप्पकां च दीयते-इस उटको पढके चंदनप्रक्षेए करिये और चरणोपरि टिपिका (तिलक ) करिय.:
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