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द्वात्रिंशस्तम्भः। शाखा आपस्तंव १, हिरण्यकेशी २, मैत्राणि ३, सत्यापाड ४, बौद्धायनी ५; शक्लयजुर्वेद यज्ञवल्क्यने रचा तिसकी शाखा काण्व १, माध्यंदिनी २, कात्यायनी ३, ये तीन है; सर्व यजुर्वेदकी शाखा ८; सामवेदकी शाखा कौथुमी १, राणायणी २, गोभील ३, ये तीन है. अथर्ववेदकी शाखा पिप्पलाद १. शौनकी २, ये दो है. इतनी शाखाके ब्राह्मण मालुम होते हैं परंतु शाखासमान वेदपाठ, इतनेतरेंके मालुम नहीं होते हैं. माध्यंदिनी कापवर. अब कौन जाने कि, किस शाखामें, किस वेदपाठमें क्या कथन था ? और इस समयमें भी, तैत्तिरीय आरण्यककी भाष्यमें सायणाचार्य लिखते हैं कि, इसमें द्रविडदेशके ब्राह्मणोंके चौसट्ट (६४) अनुवाकका पाठ है; अंधोंके ८०, कितनेक कर्णाटकोंके ७४, और कितनेकके नवाशी, (८९) अनुवाकका पाठ है. परंतु हम अस्सी (८०) पाठवालेका व्याख्यान, पाठांतर सूचनासहित, प्रधानताकरके करेंगे.
तथाच तत्पाठः॥ “॥तत्र द्रविडानां चतुःषष्ट्यनुवाकपाठः। आंध्राणामशीत्यनुवाकपाठः । कर्णाटकेषु केषांचिच्चतुःसप्ततिपाठः । अपरेषां नवाशीतिपाठः। तत्र वयं पाठांतराणि यथासंभवं सूचयंतोशीतिपाठं प्राधान्येन व्याख्यास्यामः॥"
तथा कलकत्ताके छापेका पुस्तक तैत्तिरीय आरण्यकका जो हमारे पास है, तिसमें लिखा है कि, कितनेही पाठ भाष्यकारने त्यागे हैं, तिनका भाष्य नही करा है. और कितनेक पाठोंका भाष्य करा है, वे पाठ मूलपुस्तकमें नही है.
और तैत्तिरीय ब्राह्मण प्रथमाष्टक प्रथम प्रपाठक प्रथमानुवाकके प्रथम मंत्रके भाष्यमें भी सायणाचार्य लिखते हैं कि “ ॥ वाजसनेयिनश्च विज्ञानमानंदं ब्रह्म-इति ॥” परंतु यह श्रुति वाजसनेयसंहितामें मालुम नहीं होती है. इत्यादि अनेक प्रमाणोंसे सिद्ध होता है कि, वेदोंमें बहुत गडबड हुइ है; और बहुत हिस्से नष्ट हो गए हैं. और शेष रहे
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