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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
अपौरुषेयं वचनमसंभवि भवेद्यदि ॥
न प्रमाणं भवेद्वाचां ह्याप्ताधीना प्रमाणता ॥ ११ ॥ मिथ्यादृष्टिभिराम्नातो हिंसाद्यैः कलुषीकृतः ॥ स धर्म इति चित्तोपि भवभ्रमणकारणम् ॥ १२ ॥ सरागोपि हि देवगुरुरब्रह्मचार्यपि ॥
कृपाहीनोपि धर्मः स्यात् कष्टं नष्टं हहा जगत् ॥ १३ ॥ शमसंवेगनिर्वेदानुकंपास्तिक्यलक्षणैः ॥ लक्षणैः पंचभिः सम्यक् सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते ॥ १४ ॥ स्थैर्य प्रभावनाभक्तिः कौशलं जिनशासने ॥ तीर्थसेवा च पंचास्य भूषणानि प्रचक्ष्यते ॥ १५ ॥ शंका कांक्षा विचिकित्सा मिथ्यादृष्टिप्रशंसनम् ॥ तत्संस्तवश्च पंचापि सम्यक्त्वं दूषयंत्यमी ॥ १६॥ अर्थः- साचे देवके जो देवपणेकी बुद्धि, साचे गुरुके विषे गुरुप - की बुद्धि और साचे धर्मके विषे धर्मकी बुद्धि, कैसी बुद्धि ? शुद्धा सूधी निश्चल संदेहरहित, इसको सम्यक्त्व कहिये हैं । ऐसी सम्यक्त्वकी बुद्धि थोडे वखत भी जिसको आजावेगी, सो प्राणि अर्द्धपुद्गलपरावर्त - कालमेंही संसार से निकलके मोक्षको प्राप्त होगा, यह निश्चय जाणना. यत उक्तम् ॥
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अंतोमुहुत्तमित्तंपि फासियं जेहिं हुज्झ सम्मत्तं ॥ तेर्सि अव पुग्गलपरिअडो चेव संसारो ॥ १ ॥
भावार्थ:- अंतर्मुहूर्तमात्र भी जिनोंनें सम्यक्त्व स्पर्श किया है, तिनौका अर्द्धपुद्गलपरावर्त्तही उत्कृष्ट संसार जाणना, तदनंतर अवश्यमेव मोक्षको प्राप्त होवे. इति सम्यक्त्वस्वरूपम् ॥ १ ॥
अथ मिथ्यात्वस्वरूपमाह || जिसमें देवके गुण नही हैं, ऐसे अदेवमें देवकी बुद्धि - जैसे तममें उद्योतकी बुद्धि । जिसमें गुरुके गुण नहीं हैं,
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