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तत्त्वनिर्णयप्रासाद॥ अथैकोनविंशस्तम्भारम्भः॥ अथैकोनविंशस्तंभमें शुचिकर्मसंस्कारका वर्णन करते हैं. ॥ यहां शुचिकर्म वस्ववर्णानुसार करके दिनोंके व्यतीत हुए करणा. तद्यथा ॥
शुद्ध्येहिप्रो दशाहेन हादशाहेन बाहुजः ॥ वैश्यस्तु षोडशाहेन शूद्रो मासेन शुद्धयति ॥ १॥ कारूणां सूतकं नास्ति तेषां शुद्धिर्न चापिहि ॥
ततो गुरुकुलाचारस्तेषु प्रामाण्यमिच्छति ॥२॥ तिस कारणसे स्वस्ववर्णकुलानुसार करके दिनोंके व्यतीत हुए, गुरु सर्वही, सोलां पुरुषयुगसे उरे, तिस कुलवर्गको बुलवावे. क्योंकि, सूतक सोलां पुरुषयुगसे उरे ग्रहण करिये हैं. ॥ यदुक्तं ॥
नृषोडशकपर्यन्त गणयेत् सूतकं सुधीः ॥ विवाहं नानुजानीयागोत्रे लक्षणां युगे ॥१॥ भावार्थः-सोलां पुरुषपर्यंत सुधी पुरुष सूतक गिणे,। परंतु एकगोत्र में लक्ष पुरुषयुग व्यतीत हुए भी, विवाह नहीं करे; न माने. । तिसवास्ते तिन गोत्रजको बुलवायके तिन सर्वको सांगोपांग स्नान और वस्त्रक्षालन करनेको कहे.। स्नान करके शुचि वस्त्र पहिनके गुरुको साक्षी करके, वे सर्व गोत्रज विविध प्रकारकी पूजासें जिन प्रतिमाका पूजन करे । तदपीछे बालकके माता पिता पंचगव्यकरके अंतस्नान करे. । पुत्रसहित नखच्छेदनकरके गांठ जोडी दंपती जिनप्रतिमाको नमस्कार करे, सधवा स्त्रीयांके मंगलगीत गाते वाजंत्रोंके वाजते हुए.। और सर्व चैत्योंमें पूजा नैवेद्य ढौकन करे. । साधुयोंको यथाशक्ति चतुर्विध आहार वस्त्र पात्र देवे,।और संस्कार करनेवाले गुरुको वस्त्र तांबूल भूषण द्रव्यादिदान देवे. तथा । जन्म, चंद्रसूर्यदर्शन, क्षीराशन, षष्ठी, इनसंबंधिनी दक्षिणा तिस दिनमें
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