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तत्त्वनिर्णयप्रासादबुद्धियोंका (पंडितोंका ) जो पूजक होवे, सो कहिये 'धीमह' अर्थात् विद्वज्जनोंका उपासक पुरुष तिस पुरुषरूप आधारविषे जो बुद्धि (ज्ञान) है, तिस बुद्धिसें जो अपृथग्भूत तिसका आमंत्रण 'हे धियो-यो' सद्गुरुकी सेवामें तत्पर जे पुरुष तिनोंकी बुद्धिके गोचर इत्यर्थः । क्योंकि जिनोंने सद्गुरुयोंकी उपासना नही करी है, ऐसे लोकायतिक (नास्तिक) आदिकोंके ज्ञानगोचर परमात्मा प्राप्त नही होता है। 'यो-नः' इन दोनोंके बीचमें अकारका प्रक्षेप करनेसें 'हे अ-विष्णो' न:।यह योजन कराही है ।(प्रचोदयात् ) प्रकृष्टश्चोदः(शृंगारभावसूचन) यस्याःसा प्रचोदा। प्रचोदा चासौ या च लक्ष्मीश्च प्रचोदया, तां अतति सातत्येन गच्छति प्रचोदयात्, तस्यामंत्रणं हे प्रचोदयात्!' प्रकृष्ट शृंगारभावसूचन है जिसका सो कहिये प्रचोदा;प्रचोदा सोहीं जो लक्ष्मी सो कहियेप्रचोदयातिसप्रचोद. याको (लक्ष्मीको)जो निरंतर प्राप्त होवे, सो कहिये प्रचोदयात् तिसका आमंत्रण हे प्रचोदयात्' ! अथवा प्रथम 'न: यह योजन करिये हैं। नः अस्माकं यह तो सामर्थ्यसेंही प्रतीत होनेसें। तब तो 'आनःप्रचोद' ऐसें जानना योग्य है। हे अ! हे अन:प्रचोद! अनः शकटं गाडेको प्रचोदयति प्रेरयति जो प्रेरणा करे सो ‘अनः प्रचोदः' कहिये तिसका आमंत्रण हे अनःप्रचोद' 'शैशवेहि विष्णुना चरणेन शकटं पर्यस्तमिति श्रुतेः' । बालपणेमें विष्णुने चरणकरके गाडेको प्रेरा था दूर करा था इस श्रुतिसें । ततः। समानानां तेन दीर्घः । इस सूत्रसे संधिके हुए 'आनःप्रचोद ' ऐसा सिद्ध होता है. । शंका । 'यो' इस पदसे परे 'आनःप्रचोद' पदके हुआं ‘यवानः प्रचोद' ऐसा होना चाहिये, तो यहां 'योनःप्रचोद' यह कैसे हुआ ?
उत्तर । जैसें तुम कहते हों, तैसें नहीं है। कातंत्रव्याकरणमें “एदोस्परः पदांते लोपमकारः” इस सूत्र में “एदोद्भयां” इतने मात्रसे सिद्ध हुआ भी, जो परग्रहण है, सो इष्टार्थ है; तिससे किसी स्थानपर आकारका भी. लोप हो जाता है. तिसवास्ते यहां आकारलोपसें सिद्ध है. 'योनःप्रचोद' इति । ऐसें न कहना कि, इसप्रकारके प्रयोग उपलंभ नहीं होते हैं। क्योंकि, "बंधुप्रियं बंधुजनोऽऽजुहाव" इत्यादि महाकवियोंके प्रयोग देखनेसें।
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