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तत्वनिर्णयप्रासाद
॥ अथ तृतीया ॥
आ चन त्वाचिकित्सामोधिं चन त्वा नेम॑सि । शनैरिव शनकैरिवेन्द्रायेन्दो परि' स्रव ॥ ३ ॥ ॥ अथचतुर्थी ॥ कुविच्छकत्कुवित्कर॑त्कुविन्नो॒ वस्य॑सस्र॑त् । कु॒वित्प॑ति॒द्वषो' य॒तीरिन्द्रेण संगमम ॥ ४ ॥
॥ अथपंचमी ॥
इमानि त्रीणि विष्टपा तानीन्द्र वि रोहय । शिरस्ततस्योर्वरामादिदं म उपोदरे ' ॥ ५ ॥
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॥ अथषष्ठी ॥
असौ च यानं उर्वरादिमां तन्वं मम॑ । अथो' ततस्य यच्छिरः सर्वा ता रोमशा कृधि ॥ ६॥ ॥ अथसप्तमी ॥
खे रथ॑स्य॒ खेन॑सः खे युगस्य॑ शतक्रतो । अपालामि॑न्द्र॒ त्रिष्पू॒त्व्यकृ॑णो॒ः सूर्य॑त्वचम् ॥ ७ ॥
ऋ० सं० अष्ठक ६ । अ० ६ ॥ अब वाचकवर्गों ! विचार करो कि, यह कथन परमेश्वर सर्वज्ञका सिद्ध हो सक्ता है ? प्रथम तो इस सूक्तका अपाला स्त्रीही ऋषि है, और परमेश्वरने तिसके तपसें तुष्टमान होके तिसको यह अपूर्व ज्ञानरससें भरा सूक्त दीना ! तिसमें पूर्वोक्त कथन होनेसें, वेद, अनादि अपौरुषेय कैसें सिद्ध हो सक्ता है ? और अपाला तो, ब्रह्मवादिनी थी, तिसको पिताके शिरकी टहरी, उपरक्षेत्र, गुह्यस्थानोपरि केश न होने, इनकी चिंता क्यों हुई; क्योंकि, तिसके ज्ञानमें तो ये तीनों वस्तुयों माया ( भ्रांति ) रूप
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