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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
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तथा दयानंदजी लिखते हैं कि, “इस प्रसिद्ध सृष्टि रचनेसें प्रथम परमेश्वरही विद्यमान था जीव गाढनिद्रा -- सुषुप्ति में लीन थे और जगतूका कारण अत्यंत सूक्ष्मावस्था में आकाशकेसमान एकरस स्थिर थाइत्यादि " - अब हम पूछते हैं कि, यदि प्रथम आकाशही नही था तो, दयानंदजीका परमात्मा, सुषुप्ति में लीन होनेवाले जीव, और जगत्का कारण, यह कहां रहते थे ? आकाशविना कोई भी पदार्थ नही रह सक्ता है. और आकाशकी उत्पत्ति वेदोंमें प्रकटपणे कही है. 'नाभ्या आसीदंतरिक्षमितिवचनात् ' ॥ * और दयानंदजीने भी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिकाके वेदविषय विचारके ४९ पत्रोपरि लिखा है कि “ परमात्माके अनंत सामर्थ्यसें आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी आदि तत्त्व उत्पन्न हुए हैं - इत्यादि ॥ तथा सृष्टिविद्याविषयके ११६ - ११७ पत्रोपरि ॥ “यदा कार्य्यं जगन्नोत्पन्नमासीत्तदाऽसत्सृष्टेः प्राक् शून्यमाकाशमपि नासीत् ॥ शून्यनाम आकाश अर्थात् जो नेत्रोंसे देखनेमें नहीं आता सो भी नहीं था " ॥ तथा सत्यार्थप्रकाशके सप्तम समुल्लासके लेखमें अतीतानागतवर्तमानकालके सर्व पदार्थोंका स्वामी परमात्माको लिखा है, अष्टम समुल्लास के लेखमें वर्तमान और अनागतकालके पदार्थोंका स्वामी लिखा है, और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिकाके लेखमें वर्तमान जगत्का स्वामी परमात्माको लिखा है. हम अनुमान करते हैं कि, यदि और थोडासा दिव्यज्ञान परमात्मा दयानंदजीके हृदयमें स्थापन कर देता तो, फेर परमात्माको स्वामीपणा करनेकी कुछ आवश्यकता न रहती ! इत्यलं विस्तरेण ॥
(क) हिरण्यपुरुषरूप ब्रह्मांडमें गर्भरूपकरके अवस्थित प्रजापति हिरण्यगर्भ, प्राणिजातकी उत्पत्तिसे पहिले स्वयमव शरीरधारी होता भया, सोही उत्पन्न हुआ था एकेलाही उत्पन्न होनेवाले सर्व जगत्का पति होता भया, सोही आकाश स्वर्गलोक और इस भूमिको अर्थात् तीनों
* सन १८८४ के छपे सत्यार्थप्रकाशके १८७ पत्रोपरि स्वमंतव्यामंतव्य प्रकाशमें भी दयानंदजीने आकाशको नित्य वा अनादि नहीं माना है, किंतु अनादि पदार्थ तीन हैं, एक ईश्वर, द्वितीय जीव, तीसरा प्रकृति अर्थात् जगत्का कारण इत्यादि ॥
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