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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
था ? ( यतः ) जिस वन, और वृक्षसे विश्वकर्मा, ( यावापृथिवी ) द्यावापृथिवीकों (निष्टतक्षुः ) त्राछता घडता रचता अलंकृत करता हुआ; क्योंकि, तैसें वनवृक्षका संभव नही है. लोकमे तो घरादि बनानेकी इच्छावाला किसी वनमें किसी वृक्षकों छेदनकरके त्राछनादिकरके स्तंभादिक करता है, इहां जगत् रचनेमें सो है नही । एक अन्यबात है (मनीषिणः) हे बुद्धिमानो ! ( मनसा) मनकरके - विचारकर के ( तत् इत् उ ) सो भी (पृच्छत) तुम पूछो, सो क्या ? (भुवनानि ) जगत्कों ( धारयन् ) धारण करता हुआ विश्वकर्मा ( यदध्यतिष्ठत् ) जिस जगे रहता था सो भी तुम पूछो. कुंभकारादि जैसें घरादिकमें बैठके घटादि करते हैं, सो अधिष्ठान भी पूछो। इन सर्व प्रश्नोंका यह उत्तर है कि, ऊर्णनाभिवत् यह आत्मा (ईश्वर) सर्व जगत्का आरंभ करता है, ऊर्णनाभि ( मकडी - करोलीया) अपने अंदर सेंही चेपवस्तु निकालके जाला रचता है, तैसेंही ईश्वर अपने अंदरसेंही सर्व कुछ निकालके जगत् रचता है, इसवास्ते इसजगत्का उपादानकारण, और निमित्तकारण ईश्वर आपही है अन्य नही ॥ २० ॥ ॥ इति यजुर्वेदसंहितायां सप्तदशाध्याये ॥ इत्याचार्यश्रीमद्विजयानन्दसूरिविरचिते तत्त्वनिर्णयप्रासादग्रन्थे ऋग्वेदाद्यनुसारसृष्टिक्रमवर्णनो नाम सप्तमः स्तम्भः ॥ ७ ॥
॥ अथाष्टमस्तम्भारम्भः ॥
सप्तमस्तंभमें ऋगादिवेदानुसार सृष्टिक्रम वर्णन करा, अथाष्टम स्तंभ में पूर्वोक्त सृष्टिक्रमकी यत्किंचित् समीक्षा करते हैं; तहां प्रथम हम बहुत नम्रतापूर्वक विनती करते हैं कि, पक्ष-कदाग्रहकों छोड़के प्रेक्षावानोंकों यथार्थ तत्त्वका निर्णय करना चाहिये, परंतु यह नही समझना चाहिये कि, यह अमुक धर्म, और अमुक २ शास्त्र हमारे वृद्ध मानते आए हैं तो, अब हम इसको त्यागके अन्यकों क्योंकर मान लेवे ? क्योंकि ऐसी समज प्रेक्षावानोंकी नही है, किंतु यातो अज्ञ होवे, या दृढ कदाग्रही होवे, तिसकी ऐसी समझ होती है. इसवास्ते, वेद, स्मृति, पुराण, तथा जैन
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