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सप्तमस्तम्भः।
२०३ इस पुरुषका 'मुखं किम् आसीत्' मुख क्या होता भया ? को बाहू अभूताम्' क्या दोनो बाहां होती भई ? 'को ऊरू कौ च पादौ उच्यते' क्या साथल, और क्या दोनो पग कहीए ? प्रथम सामान्य प्रश्न है, पीछे मुखं किम् इत्यादिकरके विशेषविषयक प्रश्न है ॥ ११ ॥
अब पूर्वोक्त प्रश्नोंके उत्तर कहते हैं, 'अस्य' इस प्रजापतिका 'ब्राह्मणः' ब्राह्मणत्वजातिविशिष्ट पुरुष ‘मुखमासीत्' मुख होता भया, अर्थात् मुखसें उत्पन्न हुआ है, जो यह 'राजन्यः' क्षत्रियत्वजातिविशिष्ट है, सो 'बाहूकृतः' वाहांकरके उत्पन्न करा है, अर्थात् बाहांसें उत्पन्न हुआ है, 'तत् तदानीं' तिससमय ‘अस्य' इस प्रजापतिके 'यत् यौ ऊरू' जे दो ऊरू थे, तद्रूप 'वैश्यः' वैश्य होता भया, अर्थात् ऊरूयोंसें वैश्य उत्पन्न हुआ, तथा इस पुरुषके 'पद्भयां' दोनों पगोंसें 'शूद्रः शूद्रत्वजातिमान् पुरुष 'अजायत' होता भया, यह कथन यजुर्वेदके सप्तमकांडमें स्पष्टपणें है. ॥ १२ ॥
जैसें दधिघृतादि द्रव्य, गवादि पशु, ऋगादि वेद और ब्राह्मणादि मनुष्य, तिसमें उत्पन्न हुए हैं, तैसें चंद्रादि देवते भी तिससेंही उत्पन्न हुए हैं, सोही दिखाते हैं. प्रजापतिके 'मनसः' मनसें चंद्रमा जातः' चंद्रमा उत्पन्न भया 'चक्षोः' नेत्रोंसें 'सूर्यः अजायत' सूर्य उत्पन्न भया मुखात् इंद्रश्च आग्निश्च ' मुखसे इंद्र और अग्नि दो देवते उत्पन्न भए, और 'प्राणाद्वायुरजायत' प्राणोंसें वायु उत्पन्न भया. ॥ १३ ॥
जैसें चंद्रादिकोंकों प्रजापतिके मनःप्रमुखसें कल्पना करते भए, तथा तैसेंही — लोकान् ' अंतरिक्षादिलोकोंकों प्रजापतिके नाभि आदिकसे देवते 'अकल्पयन्' उत्पन्न करते भए, सोही दिखाते हैं। 'नाभ्याः' प्रजापतिकी नाभिसें 'अंतरिक्षमासीत् ' आकाश उत्पन्न भया 'शीर्णः' शिरसें ' द्यौः समवर्तत ' स्वर्ग उत्पन्न हुआ ‘पद्भयां भूमिरुत्पन्ना' पगोंसें भूमि उत्पन्न भई, और ‘श्रोत्रादिश उत्पन्ना इति' श्रोत्र-कानोंसें दिशा उत्पन्न भई. ॥ १४ ॥ इत्यादि।
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