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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
कारणानि विभिन्नानि कार्याणि च यतः पृथक् ॥ तस्मात्रिष्वपि कालेषु नैव कर्मास्ति निश्चयः ॥ १ ॥
व्याख्या - अनेकवादी कहते हैं-कारणभी भिन्न है, और कार्यभी भिन्न है, तिसवास्ते तीनोही कालविषे कर्मोंकी अस्ति नही है ॥ १ ॥ इतिपूर्वपक्षः ॥
इस पूर्वपक्ष में परवादीयोंके अभिमत पक्ष लिखतेहुए श्रीहरिभद्रसूरिजीनें, जो जो ऋग्वेद यजुर्वेदादिकोंकी श्रुतियां, तथा मनु गीताप्रमुख ग्रंथोंके अनुसार थोडे २ व्यस्त श्लोक लिखे हैं, तिसका कारण यह है कि, पूर्वपक्षोंके श्लोक बहुत हैं सर्व लिखते तो ग्रंथ भारी हो जाता, इसवास्ते प्रतीकमात्र तिन सर्वमतवादीयोंके स्वपक्षस्थापनके सर्वश्लोक जान लेने.
प्रथम इस अवसर्पिणीकालमें श्रीऋषभदेवजीनेही, अनंतनयात्मक सर्वव्यापक स्याद्वादरसकूपिकाके रससमानसें सर्वजीवादितत्त्वोंका निरू. पण करा था, तिसमेसें किंचिन्मात्र सार लेके सांख्यमत, और सांख्यमतका किंचित् आशय लेके वेदांत, योग, मनुस्मृति, गीताप्रमुख शास्त्र ऋषिब्राह्मणोंने रचे. जैसे आर्यवेदोंकी उत्पत्ति, और तिनका व्यवच्छेद, और अनार्यवेदों की उत्पत्ति हुई, तथा आर्यब्राह्मणोंकी, और अनार्यब्राह्मणोंकी उत्पत्ति, इत्यादि वर्णन हम जैनतत्त्वादर्शनामाग्रंथ में लिख आए हैं; तहांसे जानना और प्रायः इस ग्रंथमें जे जे मत पूर्वपक्षमें लिखे हैं, वेभी सर्व जैनतत्त्वादर्शग्रंथ में खंडनरूपसें लिख दीए हैं; इहां तो केवल जो श्रीहरीभद्रसूरिजीने सामान्यप्रकारे समुच्चय पूर्वपक्षोंका खंडन लिखा है, सोही लिखेंगे. वाचकवर्गको विदित होवे कि, वेदकेसाथ स्मृति नही मिलती है, और स्मृतियोंकेसाथ पुराण नही मिलते हैं, इसवास्ते यह सर्वपुस्तक सर्वज्ञके कथन करे हुए नही हैं, परस्परविरुद्धत्वात्. इसवास्ते पूर्वोक्त मतोंवालोंने जगत्विषयक जो जो कथन करा है, सो सर्व तिनोंका अज्ञा
विजृंभित है. क्योंकि, इस जगत्का यथार्थस्वरूप पूर्वोक्त मतवालोंमेसें किसीभी नही जाना है. “ तत्तं ते नाभिजाणंति नविनासी कयाइवि इतिवचनप्रामाण्यात् " ॥
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