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पञ्चमस्तम्भः।
१६५ जीवोंके बहुत प्रयत्नके करनेसेंभी, जो नही होनहार है, वो कदापि नही होता है; और जो होनहार है तिसका कदापि नाश नहीं होता है. यथा हम साचे पिशाच हैं, और वनमें वसते हैं, भेरीको हम हस्तायोंकरके भी स्पर्श नहीं करते हैं, तोभी यह वाद पृथिवीमें प्रसिद्ध है कि, निश्चयकरके भेरीको पिशाचही ताडना करते हैं (बजाते हैं)॥ १ ॥२॥ “भूतवादिनश्चाहुः ॥” पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि तत्समुदायशरीरेंद्रियविषयसंज्ञामदशक्तिवच्चैतन्यंजलबुहुदवज्जीवो चैतन्यविशिष्ट कायःपुरुष इति ॥
भौतिकानि शरीराणि विषयाः कारणानि च ॥ तथापि मन्दैरन्यस्य कर्तृत्वमुपदिश्यते ॥१॥ एतावानेव लोकोयं यावानिन्द्रियगोचरः॥ भद्रे वृकपदं ह्येतत् यद्वदन्त्यबहुश्रुताः॥२॥ तपांसि यातनाश्चित्रा संयमो भोगवंचना ॥
अग्निहोत्रादिकं कर्म बालक्रीडेव लक्ष्यते ॥३॥ व्याख्या--भूतवादी कहते हैं-पृथिवी १, पाणी २, अग्नि ३, और वायु ४, येह चार तत्व हैं; तिनका समुदाय सोही शरीरेंद्रिय विषय संज्ञा है, और मदशक्तिकीतरें चैतन्य उत्पन्न होता है, जलके बुदबुदकीतरें जीव है, अचैतन्य विशिष्ट काया है, सोही पुरुष है, इति. ॥ ऐसें पूर्वोक्त भौतिक शरीर है, वेही विषय और कारण है, तोभी मूर्ख लोक अन्य ईश्वरादिको कर्त्तापणा कहते हैं. । यह लोक इतनाही है, जितना इंद्रियोंके गोचरविषय है; हे भद्रे ! जैसा यह जूठा कल्पित करा हुआ वृक (भेडीये) का पग है, अबहुश्रुत (अज्ञानी लोक) ऐसेही नरक स्वर्ग जूठे कल्पन करके मूर्खलोकोंको डराते हैं.। तप करना है, सो निःकेवल अनेक प्रकारकी पीडामात्र है, और जो संयम है, सो भोगोंकी वंचनारूप है, अग्निहोत्रादिक जे कर्म हैं, वेवालकोंकी क्रीडाकीतरें मालुम होते हैं.॥ १॥२॥३॥ "अनेकवादिनश्चाहुः॥"
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