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तृतीयस्तम्भः। व्याख्या हे भगवन् ! (क) कहां तो (महार्थाः) आति महा अर्थ संयुक्त (सिद्धसेनस्तुतयः) सिद्धसेनदिवाकरकी करी हुई स्तुतियां, और (क) कहां (एषा) यह (अशिक्षितालापकला) नहीं सीखा है अब तक पूरा पूरा बोलनाभी जिसने, तिसके कहनेकी स्तुतिरूप कला; अर्थात् कहां श्रीसिद्धसेनदिवाकररचित महा अर्थवालिया बत्तीस बत्तीसियां,और कहां मेरे अशिक्षित आलापकी यह स्तुतिरूप कला; (तथापि) तोभी, (यूथाधिपतेः) हाथियोंके यूथाधिपके (पथस्थः) पथ मार्गमें रहा हुआ (स्खलद्गतिः) स्खलित गतिभी, अर्थात् पथसें इधर उधर गति स्खलायमान् भी (तस्य) तिस यूथाधिपका (शिशुः) बालक कलभ (न शोच्यः) शोचनीय नहीं है. ऐसेंही श्री सिद्धसेनदिवाकर गच्छाधिप है, और मैं तिनका (बालक) बच्चा हूं. जिस रस्तेपर वे चले हैं, मैंभी तिसही रस्तेमें रहा हुआ, अर्थात् तिनकी तरहही स्तुति करता हुआ, जेकर स्खलायमानभी होजावू, तोभी शोचनीय नही हूं.
अथाग्रे श्रीहेमचंद्रसूरि अयोग व्यवच्छेदरूप भगवंतकी स्तुति रचते हैं, जिनेंद्र यानेव विबाधसे स्न दुरंतदोषान् विविधरुपायः ।। त एव चित्रं त्वदसूययेव कृताः कृतार्थाः परतीर्थनाथैः ॥४॥ व्याख्या-हे जिनेंद्र ! ( यानेव ) जिनही (दुरंतदोषान् ) दुरंतदूषणोंकों (विविधैः) विविध प्रकारके (उपायः) उपायोंकरके (विवाधसे ) तुम बाधित करते हुए हैं, अर्थात् जिन दुरंतदूषण राग, द्वेष, मोहादिकोंको नाना प्रकारके संयम, तप, ज्ञान, ध्यान, साम्यसमाधि, योग लीनतादि उपायोंकरके दूर करे है; (चित्रम् ) मुझकों बडाही आश्चर्य है कि, (त एव ) वेही दुरंतदूषण (परतीर्थनाथैः) परतीर्थनाथोंने (बदसूययेव ) तेरी असूया करकेही ( कृतार्थाः) कृतार्थ (कृताः) करे हैं, अर्थात् अच्छे जानके स्वीकार करे हैं; सोही दिखाते हैं.
हे भगवन् ! प्रथम रागकों तैने दूर करा; तिस रागकोही परतीर्थनाथोंने स्वीकार करा है. क्योंकि, रागका प्रायः मूल कारण स्त्री है, सो तो, तीनोंही देवने अंगीकार करी है. ब्रह्माजीने सावित्री, शंकरने पार्वती,
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