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अज्ञातसूरिविरचिता
जो खामइ खमइ तहा, सो इह आराहगो विणिघिटो । नाणाईणं सम्मं, अन्नो उ विराहगो जाण ॥९७॥ सा एयं नाऊणं, सम्मं सव्वाण पावकम्माण । अज्जदिणे खमियव्वं, खामेयन्वं परत्तेण ॥९८॥ इय वयणाओ संघेण, तयणु सव्वाणि पक्खियाईणि । आयरियाणीह चउहसीइ तवनियमकजेण(जाणि) ॥१९॥ आसाढप्युमिमाए, अहन्नहा आगमाणुसारेण । आयरणा वि हु संघेण, होइ हु पमाएणं ॥१०॥
एवंविहाण सूरीण, अन्नया पुवकम्मदोसेण । जाया य दुन्विणीया, सीसा न कुणंति से वयणं ॥१०१॥ तो चिंतइ सूरिवरो, एए गलिगहह व मह सीसा ।। न हु जोग्गा सिक्खाए, विणिच्छिउँ नियमणे एवं ॥१०२॥ तो मुत्ते मोत्तूणं, कहियं सेज्जायरस्स तच्चरियं । रयणीए संचलिया, निवेइयं निययगमणं च ॥१०३।। नियसिस्ससिस्सपासे, सिरिसागरचंदसूरिनामस्स । पत्ता य कमेण तओ, पविसंति निसीहियं काउं ॥१०४॥ अन्भुटाणमवनाए, नो कयं को वि अज्जओ थविरो । इय कलिउं नियचित्ते, सिरिसागरचंदसूरीहिं ॥१०५॥ अप्पुव्वं दट् ठूणं, अन्भुट्ठाणं तु होइ कायव्वं । इच्चाइ समायारी, सरिया नो नाणगवाओ ॥१०६॥ वक्खाणसमत्तीए, तो सागरचंदसूरिणा भणियं । वक्खाणियं मए इह, केरिसयं अज्जया! भणम् ॥१०७॥ कालयसूरीहिं तओ सुंदरमिइ जंपियम्मि सुयगव्वं । वहमाणो सो जंपइ, अज्जय! पुच्छेसु किचि ममं ॥१०८॥ वक्खाणेमु अणिच्चयमिइ भणिए कह पुणो वि सो आह । अन्नं वि समयवत्थु, वक्खाणावेसु किंचि तओ ॥१०९।। जंपइ कालयसूरी, विसमपयत्थं ण?] मुणेमि अह सो ।
जपेइ किं न चिंतह, तत्तो धम्मस्स इचाइ ॥११॥ अत्रान्तरे भणितं कालिकाचार्य:नास्ति धर्मः प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरातिक्रान्तत्वात् खरविषाणवदिति, उक्तं च
प्रत्यक्षेण ग्रहोऽर्थस्य, निश्चितेन प्रशस्यते । वदभावेऽनुमानेन, वचसा तद्व्यतिक्रमः ॥१११॥
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