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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०५ कालिकाचार्यकथा। आप आपणा घरनइ धाया । राजहंस मानसरोवर भणी चाल्या, लोके वस्तुवाना वखारमइ घाल्या । बगपंगति सोहइ, इंद्रधनुष चित्त मोहइ । आभ थयो रातउ, मेह थयो मातउ । मोटी छांट आवइ, लोकानइ मन भावइ । झडी लागी करसणीरी भाग्यदसा जागी । मूसलधारइ मेह वरसइ, पृथिवी ऊर्णपूर्ण करिवानइ तरसइ । वहइ प्रणाल, खलखलइ खाल, चूयइ ओरा, भीजह वस्तुवाना बोरा । टबकइ परसाल, चिंचूयइ बाल । नदी आवी पूर कडणिरा रुख भांजी करइ चकचूर वहह वाहला, लोक थया काहला । •जूना ढूंढा पडइ, लोक ऊंचा चडइ । हालीए खेत्र खड्या, वाडिसुं सेढा जड्या । मारग भागा, जे जिहां ते तिहां रहिवा लागा । प्रगट्या राता ममोला, धान थया सुंहगा मोला, नीली हरी डहडही, घणा या दूधनइ दही । नीपना घणा धान, सांभर्या धर्म नइ ध्यान । गयउ रोर, लोक करइ बकोर, गयउ दुकाल, आयउ दंदू सुकाल" || ईदृशे वर्षाकाले न कोऽपि गन्तुं शक्नोति । ततः श्रीकालिकाचार्यवचसा सर्वेऽपि साखीराजानः ९६ निजनिजपटकुली विस्तार्य स्थित्वा(ताः)। एवं मासचतुष्टयस्थित्या वर्षाकाले श्रीकालिकाचार्यः प्रोक्तम्-भो राजानः ! मार्गाः समीचीना जाताः, अथाने चलन्तु यथा भवतां स्वेप्सितं सिद्धयति । तदा ते प्रोचुः हे श्रीगुरो ! कथं प्रस्थितिः भवति ? बहुकालविलम्बनेनास्मोकं द्रव्यं सर्वं निष्टितम् ; शम्बलं च क्षीणम् , क्षुधातुराणामस्माकं सर्वं विस्मृतम् । " तां बोजा नइ खाण, जां जिमइ जासक धान, तां भट्टारक भगवान, जां जीमइ जासक धान, तां गीत नइ गान, जां जीमइ जासक धान, तां तान नइ मान, जां जीमइ जासक धान, तां वीवाह नइ जान, जां जीमइ जासक धान, तां फोफल नइ पान, जां जीमइ जासक धान, तां धर्म नइ ध्यान, जां जीमइ जासक धान, तां तप नइ उपधान, जां जीमइ जासक धान, तां आदर नइ मान, जां जीमइ जासक धान, तां लग सखा कान, जां जीमइ जासक धान, तां लग मुइडइ वान, जां जीमइ जासक धान, जो पेट न पडइ रोटीयां, तां सव्वेहि गल्लां खोटीयां " ॥२६॥ ततः श्रीआचार्यैः विचारितम्-सत्यमेते वदन्ति । कोऽपि द्रव्योपायः कार्यः यथा संबलं भवति । सैन्य चलति, कार्यसिद्धिर्भवति, परं किं कर्त्तव्यमिति चिन्तया निशि निद्रा न (ना)याति । तावत् शासनदेवता प्रगटीभूय प्रोवाच-हे भगवन् ! चिन्ता मा क्रियताम्, एषा चूर्णकुम्पिका गृह्यतां यदुपरि वासः करिष्यते तत् सर्वं स्वर्णं भावि, इत्युक्त्वा गता। प्रभाते जाते श्रीसूरिभिः सर्वेऽपि राजान आहूताः, प्रोक्तं च-भो ! कुत्रापि एक इष्टवाहको विलोक्यताम् । तैरासन्नस्थाने विलोकयद्भिः दृष्टः, गुरूणां दर्शितश्च । गुरुभिः विद्याबलेन देवेनादत्तचूर्णवासक्षेपप्रक्षेपणेन च सर्वोऽपीष्टवाहः स्वर्णीकृतः, पश्चाद् विभज्य सर्वेषां साखीराज्ञां प्रत्येकं स्वर्णेष्टिका दत्ता । ततो हर्षिताः संजातसंबलबलाः ते प्रयाणढक्कां दत्वा मालवकदेशं प्रति प्रचेलुः । अग्रे गच्छद्भिः लाटदेशस्वामिनी श्रीआचार्यभागिनेयो बलमित्र-भानुराजौ अपि साथै गृहीतौ । ततो यावता श्रीकालिकाचार्यसैन्यं मालवकसीम्नि आगतं तावता गर्दभिल्लोऽपि राजा स्वसैन्यं मेलयित्वा प्रयाणढक्कां दापयित्वा सम्मुखमागत्य पतितः । अथ आदित्यवारे द्वयोरपि सैन्य प्रयाणढक्कावादनपूर्वं च सम्मुखं चलितम् । तत्र केन प्रकारेण युद्धं जातं तत् श्रयताम् "आम्हा साम्हा कटक आव्या चडी, फोजइ फोज अडी। बगतर नइ जीन साल, सुभटे पहिर्या तत्काल । माथइ धर्या टोप, सुभट चड्या सबल कोप, पांचे हथियार बांध्या, तीरे तीर सांध्या, अमल पाणि कीधा, भाजणरा सुंस लीधा । घोडे घाली पाखर, जाणे आडा आया भाखर, आगइ कीया गज उपरि फरहरइ धज, हमामे दीधी घाई, सूरवीर आया धाई, रणतूर वागइ, ते पिणि सिंधू [मइ) डारा गइ । ठाकुर वपु कारइ, वडवडा बापांरा बिरुद संभारइ । छुटइ नालि निपट ૧ર. For Private And Personal Use Only
SR No.020798
Book TitleCollection of Kalka Story Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherSarabhai Manilal Nawab
Publication Year1949
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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