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कालिकाचार्यकथा ।
११३ अब्धिलब्धिकदम्बकस्य तिलको निःशेषसूर्यावले.
रापीठमतिबोधनैपुणवतामग्रेसू(स)रो वाग्मिनाम् । दृष्टान्तो गुरुभक्तिसा(शा)लिमनसा मौलिस्तपाश्रीजुषा,
सर्वाश्चर्यमयो महि(ही)ष्टसमयः श्रीगौतमः स्तान्मुदे ॥८॥ अहंत भगवंत श्रीमहावीरदेव सासनाधीश्वर, तेहनइ सासन लौकिक लोकोत्तर पर्वमाहि श्रीपर्युषणापर्व राजाधिराजा तेहनइ समागमनि श्रीकलि(ल्प !) स(सिद्धांतनी वाचना भणा(णी)इ । तिहां त्रिण्हि अधिकार जाणिवा । जिनकल्प थिवरकल्प सामाचारीकल्प ए त्रिहुंमाहि जिनकल्पनी वाचना छए वाचनाए परिपूर्ण हुई। तउ थिवरनइ अधिकारि मोटा प्रभावक श्रीकालिकाचारिय पणि हुथा । जेह भगवंते भगवंतना वाचनानइ अनुसारइ पांचमि हुंतीए पर्वराजाधिराज चउथिनइ दिवसि आणु । श्रीसातवाहन राजाना आग्रह लगी। तेह भणइ कालिकाचार्य थिवरचें चरित्र वखाणि । तउ हुँ पणि अमुक उपाध्याय आचारिय वाणारीसना आदेस लगी श्रीसंघ आगलि वखाणिसु । ते चरित्र कवीश्वर कुणए करी ते लिखइ ॥
नमिऊण वीरनाई, हयदुइदाहं च अइसयसणाई ।
मणिमो कालिगमरीण. मुयाणुसारेण सचरियं ॥१॥ व्याख्या-श्रीमहावीर देव नम्य(म)स्करी श्रीकालिकाचार्य नउ] प्रधान चरित्र हुँ भणिसु-वखाणिसु । श्रुतानुसारइजिम सिद्धांत प्रकरणमाहि कहा छइ, तिम कहां छह । श्रीमहावीर देव हत भणीइ हांणां (हण्यां) छइ, जेह दुख्य समस्त मनस्ताप-संताप आधि-व्याधि-रोग-सोग चउत्रीस अतिसय पइत्रीस वचनातिसयसंयुक्त। एहवा श्रीमहावीर वर्द्धमानस्वामीनइ प्रणाम करी ए चरित्र वखाणीसह ॥१॥
पंचमीओ चउथी(त्थी)ए, जेण पजु(ज्जु)सणा कया ।
तेसिं पभावगाणं, चरियं भणिमो मुरि(र)सकलियं ॥२॥ -जेहे भगवंते पांचम हुंती पर्युपणापर्व चउथिनइ दिवस कीधा कारण विशेषि, ते प्रभावि]क शिरोमणिना चरित्र । छए रसे संकलित कहीयइ छइ । ते भगवंत कुण देस हुया ते कवि कहइ छइ ॥२॥
अत्थित्य भरहवासे, धारावास(सा)भिहं पुरं ।
रेहइ परिक(रक्क)मी तत्य, वइरसं(सिं)घो नराहिवो ॥३॥
--ए भरतक्षेत्र पांचसइ छवीस छ कला प्रमाण । तेहमाहि धारावास इसइ नाम नगर। तिहां बलिष्ठ पराक्रमी वज्रसिंह राजा राज प्रतिपालइ ॥३॥
सीलाइगुणसयाधारा, स्वेण मुरसुंदरी ।
सुरसुंदरिप्पिया तस(स्स), तप्पुत्तो कालिगाभिहो ॥४॥
-ते वज्रसिंह राजानइ सुरसुंदरी नामे पट्टरानी प्रवर्तइ । केहवी ते ! सुसीला-सुविनय सुविचार सुरूप सुवचन साकार मर्यादा प्रमुख लीना गुण शत तेहनी आधार-स्थानक । रूपि हसित देवाल[ना]समूह, एहवी सुरसुंदरी । कुक्षिशुक्तिमुक्ताफल समान श्रीकालिककुमर इणि नाम पुत्र प्रवर्त्तइ ॥४॥
भग(गि)णी सरस(स्स)ई सो य, वड्ढमाणो दिणे दिणे ।
कमेण जुव(च)णं पत्तो, कलासागरपारगो ॥५॥ -ते श्रीकालिककुमरनइ बहिन सरस्वती इणइ नाम जाणवी। ते संयुक्त दिनि दिनि पंचविध धावमात्रजने लालमान पाल्यमानह तउ कुमर स्मरक्रीडाभवन नवयौवन पाम्यउ । अनेक शास्त्रकला रूप जे समुद्र तेहनउ पारगामी ॥५॥ ।
+ प्रक्षिप्तमेतच्छलोकाष्टकमाभाति ।
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