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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 50 स्वतंत्रता संग्राम में जैन अमर शहीद मोतीचंद शाह भारतीय स्वातन्त्र्य-समर का मध्यकाल था वह, उन दिनों अंग्रेजो भारत छोड़ो' और 'इंकलाब जिन्दाबाद' जैसे नारे तो दूर 'वन्दे मातरम्' जैसा सात्विक और स्वदेश पूजा की भावना के प्रतीक शब्द का उच्चारण भी बड़े जीवट की बात समझी जाती थी। जो नेता सार्वजनिक मंचो से 'औपनिवेशिक स्वराज्य' की माँग रखते थे, उन्हें गर्म दल का समझा जाता था और उनसे किसी प्रकार का सम्पर्क रखना भी खतरनाक बात समझी जाती थी। ऐसे समय में प्रसिद्ध क्रान्तिकारी श्री अर्जुन लाल सेठी अपनी जयपुर राज्य की पन्द्रह सौ रुपये मासिक की नौकरी छोड़कर क्रान्ति-यज्ञ में कूद पड़े। उन्होंने जयपुर में वर्धमान विद्यालय की स्थापना की। कहने को तो यह धार्मिक शिक्षा का केन्द्र था किन्तु वहाँ क्रान्तिकारी ही पैदा किये जाते थे। 'जिस विद्यालय का संस्थापक स्वयं क्रान्तिकारी हो उस विद्यालय को क्रान्ति की ज्वाला भड़काने से कैसे रोका जा सकता है।' सेठी जी एक बार 'दक्षिण महाराष्ट्र जैन सभा' के अधिवेशन में मुख्य वक्ता के रूप में महाराष्ट्र के सांगली शहर गये। वहाँ उनकी भेंट दो तरुणों से हुई। एक थे श्री देवचन्द्र, जो बाद में दिगम्बर जैन समाज के बहुत बड़े आचार्य, आचार्य समन्तभद्र के नाम से विख्यात हुए और जिन्होंने महाराष्ट्र में अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। दूसरे थे अमर शहीद मोतीचंद शाह। हुतात्मा मोतीचंद का जन्म 1890 में सोलापूर (महाराष्ट्र) जिले के करकंब ग्राम में सेठ पदमसी शाह के घर हुआ। माँ का नाम गंगू बाई था। सेठ पदमसी अत्यन्त निर्धन होते हुए भी संतोष-वृत्ति के धनी थे। वे न्याय से आजीविका कमाने तथा दयालु अन्त:करण वाले सीधे साधे छोटे से व्यवसायी थे। बालक की आँखों में मोती सी चमक देखकर ही माता ने बालक का नाम मोतीचंद रखा। परिवार की यह खुशी अधिक दिन तक स्थायी नहीं रह सकी। अल्पावस्था में ही मोतीचंद पितच्छाया-विहीन हो गये। फलत: मामा और मौसी के घर उनका लालन-पालन हुआ। मराठी की चौथी कक्षा तक अध्ययन करने के बाद पेट भरने के लिए उन्हें किसी पुरानी मिल में मजदूरी का काम करना पड़ा, पर ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी ज्ञान की प्यास जागृत रही, कुछ-कुछ अध्ययन वे करते ही रहे। व्यायाम, तैरना, लाठी चलाना आदि के साथ-साथ देशभक्तों के चरित्रों को पढ़ने का उन्हें विशेष शौक था। देश की क्रान्ति से सम्बन्धित अनेक गीत-कवितायें उन्हें मुखाग्र थ। ___ इसी बीच दुधनी से पढ़ाई के लिए सोलापूर आकर रह रहे बालक देवचन्द्र (जो बाद में समन्तभद्र महाराज बने) से मोतीचंद की मुलाकात हो गई। मुलाकात मित्रता और मित्रता प्रगाढ़ता में परिणत हुई। इस समय महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक द्वारा प्रारम्भ किये गये 'स्वदेशी आन्दोलन' का बहुत बोलबाला था। जन-सामान्य, विशेषत: युवा मन पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा था। जगह-जगह सभायें होती थीं, जिनमें स्वतन्त्र भारत की घोषणा और 'वन्दे मातरम्' का जयघोष होता था। बालक मोतीचंद और देवचंद इन समारोहों में अक्सर जाया करते थे। इन्हीं दिनों उनकी मुलाकात एक तीसरे साथी श्री रावजी देवचंद से हुई। तीनों ने मिलकर 'जैन बालोत्तेजक समाज' की स्थापना की और शुक्रवार पीठ के बड़े मंदिर के पीछे देहलान में बालकों के इकट्ठा होने का स्थान निश्चित हुआ। हरिभाई देवकरण और उनके भाई जीवराज जी भी इसमें मिल गये। धीरे-धीरे चालीस-पचास विद्यार्थियों का संगठन बन गया। For Private And Personal Use Only
SR No.020788
Book TitleSwatantrata Sangram Me Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain, Jyoti Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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