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सूत्रकृताङ्गरने __ अन्वयार्थः- (अलूमए) अलूपयेत्-अपसिद्धान्तकथनेन सर्वज्ञभाषिताङ्गं न लूपयेत्-न दृषयेत् ‘णो पच्छन्नभासी' न प्रच्छन्न माषी सिद्धान्तार्थस्य प्रच्छन्न भाषको न भवेत्, तथा 'ताई त्रायी माणिनां प्राणकर्ता षटकायपरिपालका (सुत्तमत्व च) सूत्रमथै च-आगमार्थ स्वमतिकल्पनया विपरीतम् 'ण करेज' न कुर्यात् स्वार्थ धिया सूत्रार्थ नान्यथारूपेण प्ररूपयेत् यतः (सत्तारभत्ती) शास्तकरने वाला न बने ‘णे। पच्छन्नभासी-न प्रच्छन्नभाषी' सिद्धान्त के अर्थ को छिपाकर कथन न करे तथा 'ताई-त्रायी प्राणियों के रक्षण करनेवाला पुरुष 'सुत्तमत्थं च-सूत्रम्' अर्थश्च' आगमके अर्थ को अपनी बुद्धि की कल्पनासे विपरीत 'ण करेज्जा-न कुर्यात्' न करे अर्थात् स्वार्थ बुद्धिसे सूत्रार्थ को अन्यथा रूपसे न कहे 'सत्तारभत्ती-शास्त भत्या' पर के हित करने वाले आचार्य के प्रति भक्ति से 'वायं-वादम्' वाणीको 'अणुवीय-अनुविचिन्त्य' सम्यक विचार करके आगम का विरोध न हो इस प्रकार की वाणी का कथन करे तथा सुयंच-श्रुतञ्च' आचार्य एवं गुरु मुखसे जो सुना हो उसको ही 'सम्म-सम्यक् सुचारु रूपसे 'पडिवाययंति-प्रतिपादयेत्' सूत्रार्थ का प्रतिपादन करे ॥२६॥ ___ अन्वयार्थ-अलूषक अर्थात् अपसिद्धान्त का कथन कर सर्वज्ञ भाषित आचारा आदि आगम को दूषित नहीं करने वाला साधु सिद्धान्त भूत अर्थ को एकान्त में छिपकर भाषण के द्वारा गुप्त न करे तथा पृथिव्यादि षटूकाय का परिपालन करने वाला समस्त प्राणियोंका भने 'णो पच्छन्नभासी-न प्रच्छन्नभाषी' सिridal मन छुपावीर प्रयन न ४३ तथा 'ताई-त्रायो' प्राधीनु रक्षा ४२वापामा ५३५ 'सुचमत्थंच-सूत्रम् मर्थश्च' भागभना मथ न पातानी मुद्धिनी ६५नाथ विपरीत शत 'ण करेज न कुर्यात्' । ४२ अर्थात स्वार्थ भुद्धिया सूत्राय ने भन्यथा पारे । 'सत्तारभत्ती-शास्तृभक्त्या' सन्यानु हित ४२११॥ माया प्रत्ये तिथी 'पाय-वादम्' पाहीन. 'अणुवीय-अनुविचिन्त्य' विय२ ४रीने आमना विरोध 1 थाय ये शतनी पानु थन ४२ तथा 'सुयंच-श्रुतच' माया भने शु३. भुमयी २ मिन्यु डाय तने 'सम्म-सम्यक्' सारी शत 'पडिवाययंतिप्रतिपादयेत्' सूत्रानु प्रतिपाहन ॥२६॥
અન્વયાર્થ—અષક અર્થાત્ અપસિદ્ધાંતનું કથન કરીને સર્વસ કથિત આચારાંગ વિગેરે આગને દૂષિત ન કરવાવાળા સાધુ સિદ્ધાંત યુક્ત અને એકાંતમાં છુપાઈને ભાષણ દ્વારા ગુપ્ત ન કરે. તથા પૃથિવી વિગેરે પકાય
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