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सूत्रकृतामसूत्रे ___ अधयार्थः - (अहा बुझ्याई) ययोक्तानि-तीर्थकृदुक्तावाराङ्गादिमूत्राणि 'मुसि. क्खएज्जा' मुशिक्षेत-आसेवनशिक्षया सेवेत, अन्येभ्यस्तथैव प्रतिपादयेच्च एवम्-'जइन' यतेत-आगमाभ्यासाय प्रपत्नं कुर्वीत (या) च तथा (णाइवेल) नातिवेलम्-कालिकोत्कालिकासमाऽध्ययनमर्यादामुल्लङ्घ्य (न वएना) न वदेव
पुनः उपदेशविधि कहते हैं-'अहा बुट्याई' इत्यादि ।
शब्दार्थ--अहा वुझ्याई-योक्तानि' तीर्थ कर प्रतिपादित आचारात आदि सूत्रों को 'सुसिश्खएजजो-सुशिक्षे' अच्छीतरह सीखे तथा 'जइ. ज्जया-यतेत' आगमके अभ्यास का प्रयत्न करे 'णाहवेल-नातिवेलं' मर्यादा का उल्लंघन करके 'न वएज्जा-न वदे।' वाणी न कहे 'से-सः' ऐसा करने वाला साधु 'दिद्विमं-दृष्टि शन्' सम्यक् ज्ञानवाला 'दिहिदृष्टिम्' सम्यक्रदर्शन को 'ण लुस एज्जा-न लूषयेत' दूषित न करे अर्थात् जिनवचन विरुद्ध प्ररूपणा न करे 'से-स' ऐसा मुनि 'तं-तम्' सर्वज्ञ कथित 'समाहि-समाधिम्' सम्पज्ञान दर्शन को 'भासि-भाषितुम्' प्ररूपणा करने को 'जाणह-जानाति' जानते हैं ॥२५॥
अन्वयार्थ-साधु पुरुष तीर्थंकर प्रतिपादित आचाराङ्ग आदि सूत्रों का सम्यक् प्रकार से ग्रहण आसेवन शिक्षा द्वारा सेवन करे और दूसरे को वैसे ही कहे एवं आगम का अभ्यास के लिये प्रयत्न करे ।
शथी ५६ पहेशन लिपि तातi सूत्र४५२ छ -'अहा बुइ. याई' त्याल.
शपाय- अहा बुइयाई- यथोक्तानि ती ४२ प्रतिपादित माया विरे सत्रोन 'सुसिक्खएज्जा-सुरिक्षयेत' सारी शत शीथे त! 'जहज्जया-यतेत' मागमना मध्यासन प्रयत्न रे 'णाइवेलं-नातिवेलम्' भयाहानुन ४शन 'न वएज्जा-न वदेत'
या२ न रे 'से-सः' में प्रभा पतना। साधु दिट्रिमं-दृष्टिमान्' सभ्य ज्ञानवाणी 'दिदि-दृष्टिम्' सम्५५ ४शनने 'ण लूसएज्जा-न लूषयेत्' होष युरत न २ अर्थात् नयनथा वि३६ ५३५। । ४२ 'से-सः' मेवो मुनि 'तं-तम्' सव | थित 'समाहि-समाधिम्' सभ्य ज्ञान ६शनने 'भासिउ-भाषितुम्' ५३५५। ४२वाने 'जाणइ-जानाति' तो छ. ॥२५॥
અન્નયાર્થ–સાધુ પુરૂષ તીર્થંકર પ્રતિપાદિત આચારાંગ આદિ સૂનું સારી રીતે ગ્રહણ આસેવન શિક્ષા દ્વારા સેવન કરે અને બીજાઓને એ જ રીતે કહે તથા આગમના અભ્યાસ માટે પ્રયત્ન કરે પરંતુ કાલિક ઉત્કાલિક
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