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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १३ याथातथ्यस्वरूपनिरूपणम् ३२ मूलम्-विसोहियं ते अणुकाहयंते, जे आत्तभावेण वियागरेजा।
अट्टाणिया होंति बहुगुणाणं, जे णाण संकाइ मुसंवएजा।३। छाया-विशोधितम् ते अनुकथयनिन, ये आत्मभावेन व्यागृणीयुः।
__ अस्थानिका भवन्ति बहुगुणानां, ये ज्ञानशङ्कया मृषा वदेयुः ॥३॥ अन्वयार्थः-(ते) ते जमालिप्रभृतयः 'विसोहिय' विशोधितम्-सकलदोम 'विसोरियं ते अणुकाहयंते' इत्यादि।
शब्दार्थ-'ते-ते' जमालि आदि निह्नव 'विसोहियं-विशोधितम्' दोषरहित एवं तीर्थकरादिके द्वारा प्ररूपित ऐसे ज्ञानदर्शन चारित्र रूप मोक्ष मार्ग को 'अणुकायंते-अनुकथयन्ति तीर्थंकर की प्ररूपणासे विपरीत प्रतिपादन करते हैं 'जे-ये' जो 'आत्तभावेण-आत्मभावेन' अपनी रुचिके अनुसार 'वियागरेज्जा-व्यायगीयुः' आचार्य परंपरा से विरुद्ध प्रकारसे सूत्रोंका अर्थ करते हैं ऐसे वे 'बहुगुणाणं-बहुगुणानाम्' अनेक सद्गुणों का 'अट्ठाणिए-अस्थानिकाः' 'होई-भवन्ति' होते हैं 'जे-ये' जो कोई जमालि आदि अपात्र ‘णाणसंकाइ-ज्ञानशङ्कया' वीतरागके ज्ञान में शंकाशील होकर 'मुसं वएज्जा-मृषा वदेयुः' मिथ्याभाषणकरते हैं वे उत्तम गुणों के पात्र नहीं होते हैं ॥३॥
अन्वयार्थ वे जमालि वगैरह सकलदोषों से रहित तीर्थंकरों 'विसोहिय ते अणुकाहयते' या
शा-'ते-ते' पूति मावि विशेष निहवा विसोहिय-विशोधितम्' हीष २डित भने ती ४२ मे ५३० मे ज्ञान, शन, यात्रि ३५ भाक्ष माग ने 'अणुकाहयंते-अनुकथयन्ति' ती५४२नी प्र३५ था वि३ प्रति. पाहन ४२ छ. 'जे-ये' र 'अत्तमावेण-आत्मभावेन' पातानी ३या प्रभाव 'वियागरेजा-व्यागृणीयुः' मायाय ५२५॥थी वि३८ रीते सूत्रन अर्थ रे छ. मेवा तम्या बहुगुणाणं-बहुगुणानाम्' अनेॐ गुना 'अद्वाणिए होई-अस्था. निकाः भवन्ति' ५२थान ३५ थाय छे. 'जे-ये' रे भाति विरे
पात्र 'णाणसंकाइ-ज्ञानशङ्कया' वीतरागना शानभा शशी मनीन 'मसं. पएज्जा-मृषा वतेयुः' मिथ्या मा५५ ४३ छे. तसे उत्तम गुपेना पात्र३५ બનતા નથી. પણ
અન્વયાર્થ–તે જમાલિ વિગેરે સઘળા દેવથી રહિત અથતિ નિવ
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