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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकताइसके भशातरूपं जन्मजरामरणरोगशोकजनितां शरीरपीडां तत्कारणं वा, च-तथा 'निज्जर' निर्जराम्-तपः संयमादिजन्यं कर्मक्षपणम् 'जाणई जनाति 'सो' सपूर्वोक्ततत्त्वज्ञोमुनिः 'किरियवाय' क्रियावादं जीवाऽजीवाद्यस्तित्वरूपम्, भासि' भाषितम्-उपदेष्टुम् 'अरिहइ' अईति-योग्यो भवतीति ॥२१॥ मूलम्-सद्देसु सेवेसु असज्जमाणो, गंधेसैं रसेसु अदुस्समाणे | जो जीवियं णो मरणाहिकंखी, - आयाणगुत्ते वलयाविमुक्के ॥२२॥त्तिबेमि॥ छाया-शब्देषु रूपेष्वसज्जमानो, गन्धेषु रसेषु चाद्विषन् । नो जीवितं नो मरणमभिकाक्षेद्, आदानगुप्तो वलयाद्विमुक्तः।२२॥ इति ब्रवीमि दुःख को अर्थात् असाता को या जन्म, जरा, मरण, रोग शोक आदि से उत्पन्न होने वाली शारीरिक पीड़ा या उसके कारणों को जानता है, और जो तप संयम आदि रूप निर्जरा को जानता है, ऐसा तत्ववेत्ता मुनि ही क्रियावाद का उपदेश देने के योग्य होता है ॥२१॥ 'सदेसु रुवेलु' असज्जमाणो' इत्यादि। शब्दार्थ-मुनि 'ससु-शब्देषु वीणा आदिके शब्दों में 'रूवेसुरूपेषु' तथा रूपमें 'असज्जमाणो-असज्जमान:' आसक्ति नहीं करता हुआ तथा गंधेतु-गंधेषु' गंधमें 'च-च' और 'रसेतु-रसेषु' रसमें 'अदुरसमाणे-अद्विषन्' द्वेष न करता हुआ 'जीवियं-जीवितम्' जीवन धारण करने की 'नो अभिकंखी-नो अभिकाक्षेत्' इच्छा न करे तथा સમ્યગ્દર્શન ગનિધિ વિગેરેને જાણે છે. જે દુઃખને અર્થાત અસાતાને અથવા જન્મ, જરા, મરણ, રેગ; શેક વિગેરેથી ઉત્પન થવાવાળી શારીરિક પીડા અથવા તેના કારણેને જાણે છે, અને જે તપ સંયમ વિગેરે રૂપ નિજરને જાણે છે. એવા તત્વવેત્તા મુનિજ કિયાવાદને ઉપદેશ આપવાને ગ્ય હોય છે. ર૧ शाय-मुनि 'सद्धेसु-शनेषु' वाला विना श०४मा रूवेसु-रूपेषु' तथा ३५मा "असज्जमाणो-असज्जमानः' मासxn 24 पिना त 'गधेसुगन्धेषु' मधमा 'च-च' भने रसेसु-रसेषु' २सेमा 'अदुस्समाणे-अद्विषन्' देष भाव र्या बिना 'जीविय-जीवितम्' न पा२५ ४२वानी 'नो अभिकंखा For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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