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दीप्रज्योतिर्जिताऊ जयतु जिनवरोवर्द्धमानःप्रकामम्॥२॥ नेत्रानन्दैककन्द स्फुरितविशदधीदातरीशप्रसिद्ध मिथ्यादृपेचकार्कोपम परमशद प्रार्घ्यपादाब्ज वोर ॥ सूतप्रज्ञानसूर्य प्रयतपदगत प्राज्ञपूज्य प्रधान रिष्टाम्भोजार्यमंस्त्वां जिनपदकमलाऽलिः
स्तुवे नन्दनोऽहम्॥३॥ ॥ इति चैत्यवन्दनचतुर्विंशिका ॥
। आदिनाथस्तुतिः॥
॥ वसन्ततिलका ॥ ऐक्ष्वाक नाभिज जिताखिलमोहवीर तीर्थरादिम शमामृतसागरेन्दो ॥ आद्यासुरामरनराधिपसेव्यमान श्रीवीतराग वृषभाङ्क सदा स्तुवे त्वाम् ॥१॥ जन्मार्णवप्रवरपोतक इष्टदायी कन्दप्पंपावकपयोऽचलमुक्तिभर्ती ॥ मिथ्यात्विचूकभविकोत्पलसप्तसप्तिजायाज्जिनेन्द्रनिकरः सुरमौलिनम्यः॥२॥ मोक्षाय लुब्धतरविष्टपदेहिचित्तं न्याय्यं सदा जिनवराननसुप्रसूतम् ॥
जैनागमं सकलदोषतमस्तमोऽरिं विश्वात्मशर्मजलधीन्दुमहं स्तवीमि ॥३॥
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