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हैं, पूजनीक हैं। फिर भी उनमें अर्जिका गणिनी मुनि उपाध्याय प्राचार्य व गणघर वगैरह य उत्तरोत्तर अधिक पूजनीक है ।
यह व्यवस्था भी सहेतुक और आवश्यक है, इस व्यवस्था से उन सब का मुनिपद और उनकी उत्तरोत्तर प्रधानता सिद्ध होती है।
मान-प्रस्तुत श्लोक अर्जिका के मुनिपद का एवं पुरुष प्रधा नता का साधक है।
५- एवं दसविध पायच्छित्वं, भणियं तु कप्पववहारे । जीदम्मि पुरिसभेदं, णाउं दायव्य मिदि भणियं ॥२८८॥ जं समणाणं वुत्, पायच्छित्तं तह जमायरणम् । तेसिं चेव पउन, तं समीणं पि णायव्य ।। २८६ ॥
(आ० इन्द्रनन्दि कृत छेदपिहम् ) ६-मुनि और अर्जिका दोनों पांच महाव्रत श्रादि मूलगुण व उत्तर गुणों को स्वीकार करते हैं । और उनका पालन भी करते हैं।
दिगम्बरीय गणितानुयोग के प्रमाण(1) दिगम्बर समाज के परम माननीय प्रा. पुष्पदंत और भूतबलि फरमाते हैं कि
मूलम-चउण्हं खवा अजोगिकेवली दव्वपमाणेण केवड़िया ? पवेसेण एको वा दो वा तिषिण वा, उक्कोसेण अठोत्तर सदं । सू० ११ ॥
टीका-उक्कोस्सेण अठुत्तरसयजीवा त्ति खवगसेढिं चडंति । (पृ० ६३)
अर्थ-चारों गुणस्थानों के क्षपक और अयोगिकेवली जीव द्रव्यग्रमाण की अपेक्षा कितने हैं ? प्रवेश की अपेक्षा एक या दो अथवा तीन और उत्कृष्टरूप से एक सौ पाठ है || १ ॥ पृ० ६२
मूलम्-सजोगिकेवली दव्वपमाणण केवडिया ? पवेसेण एक्को वा दो वा तिषिण वा, उक्कोम्सेण । अठुत्तर सयं ॥ सू० १३॥
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