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श्रावको परिचर्याह:- प्रतिमा तापनादिषु । स्यानाधिकारी सिद्धांत-रहस्याध्ययने पि वा ॥
(धर्मामृत श्रावकाचार ) त्रिकालयोग नियमो, वीरचर्या च सर्वथा । सिद्धांताध्ययनं सूर्य-प्रतिमा नास्ति तस्य वै ॥
(धर्मोपदेश पीयुष वर्षा कर श्रावकाचोर ) इन पाठों में श्रावक और श्राविका के लिय सिद्धांत वाचना का निषेध किया गया है, अतः मुनि और अर्जिका ही सिद्धांत वाचना के अधिकारी है। मान दोनों जिनदीना वाले हैं पांच महाव्रत के धारक हैं सर्वविरति हैं छट गुणस्थान के अधिकारी हैं अन एव आगम के भी अधिकारी हैं। श्रावक वैसे न होने के कारण सिद्धाम्त पाठ के अधिकारी नहीं है। ___ दिगम्बर हरिवंश पुराण में दृष्टान्त भी है कि जिनदीक्षा लेने के पश्चात् जय कमार न १२ अंगों का और सुलोचना अर्जिका न ११ अंगों का अध्ययन किया ( १२.५२) ।
३-सह समणाणं भणिय, समीणं तहय होइ मल हरणं । वज्जिय तियालजोगं, दिणपडिमं छेदमालं च ॥१॥
(दिगम्बर चर्चा सागर चचा 1८६ ) मान श्रमण और श्रमणिों की प्रायाश्चत्तविधि एक सी है । फर्क सिर्फ इतना ही है कि श्रमणी के लिये त्रिकाल जोग, सूर्य प्रतिमा योग और छेदमाल का निषेध है।
४-महत्तराप्यायिकााम वंदते भक्तिभाविता । अद्य दीक्षितमप्याशुव्रतिनं शान्तमानसं ॥
(नीति सार) साधु और अर्जिका दोनों दीक्षा वाले हैं, इस हालत में छोटा. मुनि बड़ी अर्जिका को बन्दन कर यह स्वाभाविक था, मुनि पद की हैसियत से यह होना संभवित ही था, अतः उसमें यह विशेष व्यवस्था की गई है कि-महत्तरा भी नव दीक्षित मुनि को बन्दन करें । यद्यपि मुनि और अर्जिका ये सब पांच महाव्रतधारी
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