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(६३) पीने जय वीयराय कहके फिर पांचमी वेर नमोत्थुणं सबे तिविहेण तक कहै, इति पांच शक्रस्तव देववन्दन विधि ॥
॥कर्मतणी कथनी रे कहने जश् कहुं॥ ए देशी ॥ वीरजिनेसर अलवेसर प्रनु सजिलो, सुनिजर धरि सेवकनी ए अरदासजो, वालेसर विन केहने करीये वीनती, श्म जाणीने श्राव्यो तुमारी पासजोवी॥१॥ काल अनादि रफड्यो हूं संसारमा, नवजवनमतां मुख सह्या अपारजो । वीतराग तमे तारक जाणों तातजी,तोपण वीतकवात कहुँ निरधारजो ॥ वी० ॥२॥ काल अनंत रहियो सूक्ष्मनिगोदमां, व्यवहारेतर राशी दोय कहंत जो ॥ श्वासोश्वासमां अधिका सतरेलवकर्या । श्म करता नवि पाम्यो जवनों अंतजो ॥ वी० ॥३॥ काल लब्धी पामीने परित्तपणों लह्यो, पृथिव्यादिक व्यवहारमा आव्यो तेण जो । कर्म उदयथी फरि पमियो निगोदमां, पुजलपरियह असंख्य रह्यो उहणजो ॥ वी० ॥४॥ व्यवहारकराशि कहवाणों हुं तिहां, एजाणू तुज आगमश्री जगतातजो, एकेंजियमां वसतांकाल घणों गयो, तेहनी केटली कई तुम आगल वातजो॥ वी० ॥५॥ विकलेंजियनां नव संख्याता मैं कीया, मुःखतणो नही आवे कहता पारजो, पंचेंनि तिर्यच पणों लहिने प्रत्नो, जलथल खचरना जव कर्या पुःख कारजो॥ वीर ॥ ६॥ शीततापनयनूखतृषा सही घणी, क्रूर कर्म करी उपनो नरक मजारजो, बेदन जेदन तामन तर्जनादिक सह्या, पर्माधादि कृत कष्ट असारजो ॥ वी० ॥ ७॥ नरक थकी निकलीने तीर्यच वलि थयो, अकाम निर्जरा करतां बहुती
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