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(५३) ॥ अथ श्रीअष्टमीनी शुश्॥ . ॥ चनवी से जिनवर, प्राणमुं हुं नितमेव ॥ श्राम दिन करियें, चंजाप्रजुजीनी सेव ॥ मूरति मन मोहे, जाणे पूनिम चंद ॥ दीगं मुख जाये, पामे परमानंद ॥१॥ मिल चोसठ इंज, पूजे प्रजुजीना पाय ॥ इंशाणी श्रपञ्चर, कर जोमी गुण गाय ॥ नंदीसर दीपे, मिल सुरवरनी कोम ॥ अचाही महोबव, करतां होमा होम ॥२॥ सेर्बुजा सिखरें, जाणी खान अपार ॥ चौमासे रहिया, गणधर मुनि परिवार ॥ नवियणनें तारे, देश धरम उपदेश ॥ दूध साकरथी पिण, वाणी अधिक विशेष ॥ ३ ॥ पोषो पडिक्कमणो करिये व्रत पचरकाण ॥आवम तप करतां, आठ करमनी हाण ॥ आठ मंगल थायें, दिन ५ कोम कल्याण ॥ जिनसुखसूरि कहै श्म शासनसुरीय सुजाण ॥ ॥४॥ इति अष्टमी स्तुतिः॥४॥
॥अथ श्रीग्यारस स्तुति ॥ ॥ अरनाथ जिनेसर दीक्षा नमीजिन ज्ञान ॥ श्रीमति जनम व्रत केवलज्ञान प्रधान ॥ ग्यारस मिगसर सुदि उत्तम अवधार ।। ए पंच कट्याणक समरीजै जयकार ॥१॥ ग्यारे अनुपम एक अधिक गुण धार ॥ ग्यारे बारे प्रतिमा देशक धार ॥ ग्यारे उगणा दोय अधिक जिनराय ॥ मन सूधे सेव्यां सब संकट मिटजाय ॥२॥ जिहां वरस श्यारै कीजे व्रत उपवास ॥ वलि गुणनो गुणियै विधिसेती सुविलास ॥ जिनागमवाणी जाणी जगत प्रधान ॥ एक चित्त आराधो साधो सिद्ध विधान ॥३॥ सुर असुर नुवणवण सम्यग्दर
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