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* भाषा टीका सहितम्
रमणीयामरमणीम्
अभव्यानामस्मिन् वरद विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः ॥ ४ ॥
हे वरद ! ( वर देने वाले ) आपके ऐसे ऐश्वर्यं, जो संसार की सष्टि, रक्षा तथा प्रलय करने वाले हैं, तीनों वेदों से गाये हुए हैं, तीनों गुणों ( सत्, रज, तम ) से परे हैं, तीनों शक्तियों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश ) में व्याप्त हैं, कुछ नास्तिक अनुचित निन्दा करते हैं । इससे उन्होंका अधःपतन होता है न कि आपके यश का ॥ ४ ॥
किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनम् किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च । अतयैश्वर्ये त्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ॥ ५ ॥
"अचिन्त्याः खलु ये भावा न तांस्तर्केण योजयेत्" के अनुसार कल्पना से बाहर, अपनी अलौकिक माया से सृष्टि करनेवाले आपके ऐश्वर्यके विषय में नास्तिकों का यह विचार ( वह ब्रह्म सृष्टिकर्ता है, किन्तु उसकी इच्छा, शरीर सहकारी कारण आधार और समवायि कारण क्या है ? ) कुतर्क जगत के कतिपय मन्द-मति वालोंको भ्रान्ति के लिए वाचाल करता है ॥ ५ ॥
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