________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
४
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
* शिवमहिम्नस्तोत्रम्
अजन्मानो लोकाः किमवयवन्तोऽपि जगतामधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति । अनीशो वा कुर्याद् भुवनजननमेकः परिकरो यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर ! संशेरत इमे ॥६॥
हे अमरवर ! ( देवश्रेष्ठ ) सावयव लोक अवश्य ही जन्य है तथा इसका कर्ता भी कोई न कोई है, परन्तु वह कर्ता आपके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं हो सकता ? क्योंकि इस विचित्र संसार की विचित्र रचना की सामग्री ही दूसरे के पास असम्भव है । इसलिए अज्ञानी लोग ही आपके विषय में सन्देह करते हैं || ६ || त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च । रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥७॥
हे अमरवर ! वेद त्रयी, सांख्य, योग, शैवमत और वैष्णव मत ऐसे भिन्न मतों में कोई वैष्णव मत और कोई शैव मत अच्छा कहते हैं, रुचि की विचित्रता से टेढ़े - सीधे मार्ग में प्रवृत्त हुए मनुष्यों को अन्त में एक आपही साक्षात् या परम्परा प्राप्त होते हो, जैसे नदियाँ टेड़ी-सीधी बहती हुई भी साक्षात् या परम्परा से समुद्र में ही मिलती हैं ॥ ७ ॥
For Private and Personal Use Only