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* शिवमहिम्नस्तोत्रम्
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ॥२॥
हे हर ! आपकी निर्गुण और सगुण महिमा मन और वाणी के विषय से परे है, जिसे वेद मा संकुचित होकर कहते हैं । अतः आपकी इस महिमा की स्तुति करने में कौन समर्थ हो सकता है ? तब भी अर्वाचीन भक्तों के अनुग्रहार्थ धारण किया हुआ नवीन रूप भक्तों के मन और वाणी का विषय हो सकता है मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतस्तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् । मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता || ३ ||
हे ब्रह्मन् ! जब कि अपने मधु सदृश मधुर और अमृत के सदृश जीवनदायिनी वेदरूपी वाणी को प्रकाशित किया
ब्रह्मादि से की गई स्तुति आपको कैसे प्रसन्न कर सकती है ? हे त्रिपुरमथन ! जब ब्रह्मादि भी आपकी स्तुति गान करने में समर्थ नहीं हैं तब मुझ तुच्छ की क्या सामर्थ्य है । मैं तो केवल आपके गुणगान से अपनी वाणी को पवित्र करने की इच्छा करता हूँ || ३ ||
तवैश्वर्यं
प्रलयकृत्
यत्तज्जगदुदयरक्षा त्रयीवस्तुव्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु ।
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