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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १०० ) अर्थ -- योगी जिस परमात्मा को जानकर और उस परमतत्व को निरन्तर ध्यान में लाकर निर्वाध अनन्त और अनुपम ऐसे निर्वाण (मोक्ष) को पाते हैं । अर्थात् उस परमात्म ध्यान से मुक्ति होती है 1 ति पयारो स अप्पा परमन्तर बाहिरोहु देहीणं । तच्छपरो झाइज्जइ अन्तोवारण चयहि बहिरा ॥ ४ ॥ त्रिप्रकारः स आत्मा परमन्तरबहिः स्फुटं देहीनाम् । तत्र परं ध्यायख अन्तरुपायेन त्यज वहिरात्मनन् ॥ अर्थ -- आत्मा तीन प्रकार है परमात्मा १ अन्तरात्मा २ । और बहिरात्मा ३ । तिन में से अन्तरात्मा के उपाय से परमात्मा को ध्यावो और वहिरात्मा को छोड़ो । अक्खाणि पहिरप्पा अन्तर अप्पाहु अप्पसङ्कप्पो । कम्पकलङ्कविमुको परमप्पा भण्णए देवो ॥ ५ ॥ अक्षाणि वहिरात्मा अन्तरात्मा स्फुटं आत्मसङ्कल्पः । कर्मकलङ्कविमुक्तः परमात्माभण्यते देवः ॥ अर्थ- आंख नाक आदि इन्द्रियां वहिरात्मा हैं अर्थात् इन्द्रियों को ही आत्मा मानने वाला वहिरात्मा है, आत्मसङ्कल्प अर्थात् भेदज्ञान अन्तरात्मा है । भावार्थ - जो आत्मा को शरीर से भिन्न मानता है वह अन्तरात्मा है, और जो कर्मरूपी कलङ्क से रहित है वह परमात्मा है, वही देव है । मलरहिओ कलचत्तो अणिन्दओ केवलोविसुद्धप्पा | परमेट्ठीपरमजिणो सिवङ्करो सासओ सिद्धो ॥ ६ ॥ मलरहितः कलत्यक्तः अनिन्द्रियः केवलो विशुद्धात्मा । परमेष्ठी परमजिनः शिवङ्करः शास्वतः सिद्धः ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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