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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ११० ) अर्थ - वह परमात्मा कर्ममल रहित है, शरीर रहित है, इन्द्रिय ज्ञान रहित है अर्थात् जिसको बिना इन्द्रियों के ज्ञान होता है, अथवा निन्दारहित हैं अर्थात् प्रशंसनीय है, केवल ज्ञानमयी है, परम पद अर्थात् मोक्षपद में तिष्टे हैं, परम अर्थात् उत्कृष्ट जिन है शिव अर्थात् मंगल तथा मोक्ष को करे है, अविनाशी और सिद्ध स्वरूप है। आरुहवि अन्तरप्पा वहिरप्पा छण्डिऊणतिविहेण । झाकून परमप्पा उवहं जिणवरिं देहिं ॥ ७ ॥ आरुह्य अन्तरात्मनं वहिरात्मानं त्यक्त्वात्रिविधेन । ध्ययेत परमात्मानं उपदिष्टं जिनवरेन्द्रैः || अर्थ - मन वचन काय से वहिरात्मा को छोड़ाकर अन्तरात्मा का आश्रय लेकर परमात्मा को ध्यावो ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है । वरित्थेरियमाणो इन्दिय दारेण णियसरुवचओ । णियदेहं अण्पाणं अज्जव सदि मूढदिट्टीओ ॥ ८ ॥ बहिरर्थे स्फुरितमनाः इन्द्रिय द्वारेण निजस्वरूप च्युतः । निजदेहम् आत्मान अध्यवश्यति मूढदृष्टिः ॥ - अर्थ – इन्द्रियों के निमित्त से स्त्री पुत्र धन धान्य ग्रह भूमि आदिक वाह्य पदार्थों में लगा हुवा है मन जिसका इसी से निज आत्मस्वरूप से छुटा हुवा यह मिथ्या दृष्टि पुरुष निज शरीर में ही आत्मा को निश्चय करे है अर्थात् शरीर को ही आत्मा समझे है । णियदेह सरिस्सं पिछिऊण परविग्गहं पयत्तेण । अयणं पि गहियं झाइज्जइ परमभाएण ॥ ९ ॥ निजदेहसदृशं दृष्ट्वा परविग्रहं प्रयलेन । अचेतनमपि गृहीतं ध्यायते परमभेदेन || अर्थ - चेतनारहित और शरीर से अत्यन्त भिन्न स्वरूप आत्मा कर ग्रहण किया एसे परपुरुषों के शरीर को अपनी देह (शरीर ) के समान जानकर उसको (अनेक) प्रयत्नों कर ध्यावै है । For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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