SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १०८ ) अर्थ-इस प्रकार यह भाव प्राभृत श्रीसर्वशदेव ने सम्यक्प्रकार उपदेशा है तिसको जो भव्य जीव पढ़े हैं सुने हैं भावना कर हैं वह अविचल स्थान अर्थात् [ मोक्ष स्थान ] को पाये है। छटा पाहुड़। मोक्षप्राभृतम् । णाणमयं अप्पाणं उपलद्धं जेण झडिय कम्मेण । घइऊणय परदव्वं णमोणयो तस्स देवस्स ।। १॥ ज्ञानमय आत्मा उपलब्धो येन क्षितकर्मणा । त्यक्त्वा च परद्रव्यं नमोनमस्तस्मै देवाय ॥ अर्थ-क्षय कर दिये हैं द्रव्यकर्म भावकर्म और नो कर्म जिस ने ऐसा जो आत्मा परद्रव्यों को छोड़कर ज्ञानमय आत्मस्वरूप को प्राप्त हुआ है तिस आत्मस्वरूप देव को मेरा नमस्कार होवो। णमिऊण य तं देवं अणन्तं वरणाण दंसणं सुदं । वोच्छं परमप्पाणं परमपयंपरम जोईणं ॥ २ ॥ नत्वा च तं देवं अनन्तवरज्ञानदर्शनं शुद्धम् । वक्ष्ये परमात्मानं परमपदं परमयोगिनाम् ॥ अर्थ-अनन्त और उत्तम है शानदर्शन जिनमें, शुद्ध परमात्मस्वरूप और उत्कृष्ट है पद जिनका ऐसे देव को नमस्कार करके परमयोगियों के प्रति शुद्ध अनन्तदर्शन शानस्वरूप और उत्कृष्ट पदधारी ध्येयरूप परमात्मा का वर्णन करूंगा। जं जाणऊण आई जो अच्छो जोइऊण अणवस्य । अव्वावाहणतं अणोवमं हवइ णिवाणं ॥ ३ ॥ यद् ज्ञात्वा योगी यमर्थ युक्त्वाऽनवरतम् । अन्यायाधमनन्तम् अनुपमं भवति निर्वाणम् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy