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ते कहेल नथी. स्पर्श आठ प्रकारे छे. तेमा कर्कश-कठण (न वळी शके तेवो) यावत् शब्दथी मृद वगेरे वीजा छ स्पर्श जाणवा. सुखपूर्वक-सहेलाइथी वळे ते मृदु, नीचे गमन करवामां जे हेतु ते गुरू, प्रायः तीच्छी अने ऊंचे गमन करवामां जे हेतु ते लघु, ठंडीथी करायेल स्तंभन स्वभाववाळो ते शीत, कोमळ पाकने करनार ते उष्ण, संयोग छते संयोगवाळी वस्तुओना बंधनो हेतुपिंडरूप करनार ते स्निग्ध, बंध(पिंड)ने नहिं करनार रुक्ष. आ दरेक एकेक छे. (मू० ४७) पुद्गलना धर्मोनु एकपणुं कड्युं. हवे पुद्गलोथी जोडायेल जीवोना अप्रशस्त धर्मो-अठार पापस्थान संज्ञावाळानुं 'एगे पाणाइवाए' आदि सूत्रना आरंभथी 'दसणसल्ले ' सूत्रवडे एकपणुं कहे छः
एगे पाणाइवाए जाव एगे परिग्गहे । एगे कोहे जाव लोहे । एगे पेजे एगे दोसे जाव एगे परपरिवाए । एगा अरईरई । एगे मायामोसे । एगे मिच्छादंसणसल्ले । सू०४८, एगे पाणाइवायवेरमणे जाव परि वेरमणे । एगे कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे । सू० ४९ |
मूलार्थ:-प्राणातिपात एक छे यावत् परिग्रह एक छ, क्रोध एक छे यावत् लोभ एक छे, राग एक छे, द्वेष एक छे यावत् परपरिवाद एक छ, अरतिरति एक छे, मायामृषा एक छे, मिथ्यादर्शनशल्य एक छे. (मू० ४८) प्राणांतिपातनी विरति यावत् परिग्रहनी विरति, क्रोधनो त्याग यावत् मिथ्यादर्शनशल्यनो त्याग. (सू० ४९)
टीकार्थः-तत्रतेमां-पापस्थानमांप्राणा:-उच्छ्वास वगेरे, तेओर्नु अतिपातन-प्राणवाळा साथे वियोग करवो ते प्राणा
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