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श्रीस्थानागसूत्र सानुवाद ॥४१॥
१ स्थाना* ध्ययने
अजीवधर्माः |४७ सूत्रम्
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एक छे अने पर्यायार्थपणाथी तो अनंत पर्याय छे. अथवा सिध्धोर्नु अनंतपणुं छते पण सिध्धार्नु समानपणुं होबाथी एकपणुं छे. अथवा १ कर्म, २ शिल्प, ३ विद्या, ४ मंत्र, ५ योग, ६ आगम, ७ अर्थ, ८ यात्रा, ९ बुध्धि, १० तप अने ११ कर्मक्षय, आ भेदवडे सिद्धोर्नु अनेकपणुं छते पण सिद्धार्नु, सिद्ध शब्दना उच्चारपणानुं साम्य होवाथी एकपणुं छे. कर्मक्षय सिद्धनो परिनिर्वाणरूप स्वभाव होय छे तेथी हवे ते कहे छे. 'एगे परिनिव्वाणे' परि-सर्वथा, निर्वाणं, सकल कर्मकृत विकार रहित थवाथी स्वस्थ थq ते परिनिर्वाण, ते एक छे. तेनो एक वखत संभव छते फरीने (परिनिर्वाणनो) अभाव होवार्थी परिनिर्वाणरूप धर्मना योगथी तेज कर्मक्षयसिद्धि, परिनिवृत कहेवाय छे. तथा ते देखाडवा माटे कहे छ-'एगे परिनिब्युए' परिनिर्वृतःसर्व प्रकारे शारीरिक, मानसिक अस्वास्थ्य( दुःख )थी रहित ए तात्पर्य छे. तेनुं एकपणुं सिद्धनी माफक भावq. (मू० ४६) अहिं सुधीना सूत्रोवडे प्राय जीवना धर्मो एकपणाए निरूपण कराया. हवे जीवने सहायक होवाथी पुद्गलो अने तेना लक्षणरूप अजीवना धर्मों 'एगे सद्दे' ए आदि सूत्रथी यावत् 'एगे लुक्खे' ए छेल्ला सूत्र पर्यंत ग्रंथवडे एकपणाए ज देखाडाय छे. केटलाएक पुद्गलादिनी तो सत्ता अनुमानथी जणाय छे, अने घटादि कार्यनो साक्षात्कार थवाथी | केटलाएक(पुद्गलो)नी सत्ता व्यवहारिक(इंद्रियसंयोग)रूप प्रत्यक्षथी जणाय छे; माटे कहे छे केः
एगे सद्दे, एगे केवे, एगे गंधे, एगे रैसे, एगे फासे, एगे सुब्भिसंहे, ए एगे सुरुवे, एगे दुरूवे, एगे 'दीहे, एगे हैस्से, एगे वेट्टे, एगे 'तसे, एगे चउरंसे, एगे पिढेले,
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सटे
॥४१॥
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