SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३७ ॥ www.kobatirth.org वे वगेरे मनोयोगोनो असंभव छे. हवे मनोयोगना स्वामी कहे छे:-' देवासुरमणुयाणं ' त्ति तेमां कांतिवाळा क्रीडा करनारा ते देवो वैमानिक अने ज्योतिष्को, सुर नहि ते असुरो-भवनपति अने व्यंतरो, मनुथी उत्पन्न थयेल मनुजो मनुष्यो. ते देव, असुर अने मनुष्योने मन एक समयमां एक छे; तथा वचनयोग पण देवादिकोने एक समयमां एक ज छे. तथाविध मनोयोगपूर्वक तथाविध वचनयोग होवाथी अथवा सत्यादि चार वचनयोगमां कोइ पण एक वचनयोग एक समये होवाथी एक छे. ते संबंधमां सूत्रकार स्वयं आगळ कहेशे "छहिं ठाणेहिं णत्थि यावत् दो भासाओ भासित्तए " तथा कायव्यायामकाययोग देवादिने एक समये एक ज छे. सात काययोगमां कोइ पण एक काययोग एक समये होय छे. शंका- ज्यारे आहारक (शरीर ) नो प्रयोग करे छे त्यारे औदारिक शरीर त्यां ज रहेलुं होय छे एम संभळातुं होवाथी एक समये बन्ने काययोग केम होय ? समाधान - विद्यमान छतां औदारिक शरीरनो व्यापार न होवाथी तेमज आहारक शरीरनो ज त्यां व्यापार होवाथी तेम थई शके छे. औदारिक शरीर पण त्यारे आहारक प्रयोगसमये व्यापार ( प्रवृत्ति) करे तो केवलिसमुद्घातमां सातमा छड्डा अने बीजा ए त्रण समयमां औदारिक मिश्रयोगनी माफक मिश्रयोगपणुं थशे. तेमज आहारकप्रयोगकालमां जो औदारिकनो १. टीकाकारे आपेल छठ्ठा ठाणानो पाठ ते अहि संक्षेपथी लखेल छे. ए पाठनो प्रस्तुत विषयमा एटलो ज उपयोग छे के एक समयमां वे भाषा बोलवानी जीवोनी शक्ति नथी. २. आ त्रण समयमां कार्मण शरीर साथे औदारिकनो मिश्र थाय छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ******** १. स्थाना ध्ययने एक योगता ४१ सूत्रम् ॥ ३७ ॥
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy