SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXX. XxxxxxxXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX विकुर्वणा कराय छे ते दरेकने भवधारणीय विकुर्बणा एक होवाथी एक ज छे. अथवा सर्व वैक्रिय शरीरनी अपेक्षाए भवधारणीय(विकुर्वणा)नु कथंचित् एक लक्षण होवाथी पण एक छे. वली जे विकुर्वणा, बहारना पुद्गलोने ग्रहण करवापूर्वक कराय छे ते उत्तरवैक्रियनी रचनास्वरूप छे. ते उत्तर विकुर्वणा विचित्र अभिप्रायवाळी होवाथी वैक्रियलब्धिवाळाने तथाप्रकारनी शक्ति होवाथी एक जीवने अनेक पण विकुर्वणा थाय छे तेनो अहिं निषेध करेल छे. शंका-यहारना पुद्गलोने ग्रहण कर्ये छते ज उत्तरवैक्रिय थाय छे ते शाथी निश्चय कराय छ ? जेने लइने आ मूत्रमा 'अपरियाइत्ता' आ शब्दवडे उत्तरवैक्रिय विकुर्वणा छोडी देवा( निषेध करवा )मां आवे छे. जो एम कहेता हो तो भगवती मूत्रना वचनथी उत्तर आपीए छीए ते आ प्रमाणे:-"देवे णं भंत! महिड्डिए जाव महाणुभागे बाहिरण पोग्गलए अपरियाइत्ता पभू एगवन्नं गावं विउवित्तए ? गोयमा ! नो इणढे ममढे, देवे णं भंते! बाहिरण पोग्गले परियारत्ता पभू ?, हता पभू"त्ति। हे भदंत-पूज्य ! महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव, बहारना पुद्गलोने ग्रहण न करीने एक वर्णवाळा एक रूपनी विकुर्वणा करवा माटे समर्थ छे ? हे गौतम ! आ अर्थ समर्थ नथी. हे भगवन् ! देव बहारना पुद्गलोने ग्रहण करीने विकुर्वणा माटे समर्थ छ ? हा, समर्थ छे. अहिं चोकस उत्तरवैक्रिय बहारना पुद्गलो ग्रहण करवाथी थाय छे ए विवक्षित छे. (सू०१८) 'एगे मणे'त्ति' मनन मन:-मनन करवू ते मन. औदारिकादि शरीरनी प्रवृत्तिवडे ग्रहण करेल मनोद्रव्यना समुदायना सहायथी जीवनो जे व्यापार ते मनोयोग. अथवा ' मन्यते अननेति मनः'जनावडे मनन कराय छे ते मन, मनोद्रव्य मात्र ज छे. ते मन, १. भावरूप व्युत्पत्त्यर्थने लइने भावमन- कथन कहेल छे. KAR XXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy