SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नासूत्र सानुवाद ।। १६० ।। ****** www.kobatirth.org सर्वात्मप्रदेशोनुं शरीरमां रहेल होवाथी नीकळे हे अथवा उपचारथी शरीरकं शरीरी (जीव ) प्रत्ये दंडना योगथी दंड पुरुषनी जेम जाणवुं. तेमां देशथी संकोच, मरनार संसारी जीवोने पग वगेरेथी जीवना प्रदेशोना संकोचथी छे अने सर्वथी तो मोक्षमां जनारने होय छे अथवा शरीरने देशथी संकोचीने हाथ वगेरेना संकोचवडे अने सर्वथी सर्व शरीरना संकोचनवडे पिपीलिका (कीडी ) वगेरेनी जेम जाणवुं. आत्मानुं संवर्त्तन ( संकोच ) करता थकां तो शरीरने निवर्त्तन ( जुदुं ) करे छे, माटे कहे छे एवं 'निवहयित्ताणं' ति० तेमज निवर्त्य - जीवना प्रदेशोथी शरीरने अलग करीने ए अर्थ छे. तेमां देशथी इलिकागतिमां अने सर्वथी गेन्दुकगतिमां करे छे अथवा देशथी शरीरने आत्माथी वृथक् करीने पग वगेरेथी नीकळनार अने सर्व सर्वागमाथी नीकळनार, अथवा पांच प्रकारना शरीरना समुदायनी अपेक्षाए देशथी औदारिकादि शरीरने छोडीने अने तैजस कार्मण शरीरने तो ग्रहण करीने ज, तथा सर्वथी बधा (पांच) शरीरना समुदायने छोडीने नीकळे छे अर्थात् सिद्ध थाय छे. ( सू० ९७ ) अनंतर सूत्रमां सर्वथी नीकळवुं कथुं, ते तो परंपरावडे धर्मश्रवणना लाभ वगेरेमां थाय छे. ते जेम थाय छे तेम दर्शावता थका कहे छे दोहिं ठाणेहि आता केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणताते, तं० खतेण चेत्र उवसमेण चेव, एवं जाव मणपज्जवनाणं उप्पाडेजा तं० खतेण चेव उवसमेण चैव । सू० ९८ मूलार्थ:-बे स्थान ( प्रकार ) वडे आत्मा केवलीप्ररूपित धर्मने श्रवणपणा प्राप्त करे अर्थात् धर्म सांभळवाना लाभने For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ स्थानकाध्ययने उद्देशः ४ जीवस्य धर्मप्राणः ९८ सूत्रम् ॥ १६० ॥
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy