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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१४३॥
| पवद्धस्स चमज्झे, मेरू तस्स पुण दाहिणुत्तरओ। वासाई तिन्नि तिन्निवि, विदेहवासंच मज्झमि ॥८४ अरविवरसंठियाई,चउरो लक्खाइं ताई खेत्ताई (दीर्घतया)।अंतो संखित्ताई,रुंदतराई कमेण पुणो।।८५
भरहे मुहविक्खंभो, छावढिसयाई चोदसहियाई। अउणत्तीसं च सयं, बारसहियदुसयभागाणं ॥८६॥ [ ६६१४ ३१] अट्ठारस य सहस्सा, पंचेव सया हवंति सीयाला ।
पणपण्णं अंससयं, बाहिरओ भरहविक्खंभो ॥ ८७ ॥ [१८५४७ १] धातकीखंडना पूर्वार्ध अने पश्चिमार्धना मध्यभागे प्रत्येकमां अकेक मेरु छे, ते अकेक मेरुनी दक्षिण अने उत्तरदिशाए त्रण त्रण क्षेत्रो ले अने मध्यभागमा महाविदेह क्षेत्र छे. अर-चक्र (पेडा)ना आरा, तेना विवर(मध्य)ना आकारे भरतादिक्षेत्रो रहेला छे, ते आ प्रमाणे-चक्रनाभिस्थाने जंबूद्वीप अने लवणसमुद्र छे, आराने स्थाने वर्षधर पर्वतो रहल छ अने आराना आंतराने स्थाने वषेधरपर्वतोनी वच्चमां आवेला क्षेत्रो छे. ते दरेक क्षेत्रो चार चार लाख योजनना लांबा के. अंतमां (लवणसमुद्रनी दिशामा) पहोळाईने लईने सांकडा छे ते फरी क्रमथी पहोळाईमां वृध्धि पामता रहेला छे. भरत क्षेत्रमा अंदरेनी पहोळाई छ हजार, छसो चौद योजन अने सर बसो ने बारीआ एकसो ओगणत्रीश भाग अधिक छे. भरतनी
1. लवणसमुद्रनो दिशामां.
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३
अपरवर्णनम् ४९१-९२
९३ सूत्राणि
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॥१४३॥
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