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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद 1॥१४॥
४१ स्थानावेयवयणं नमाणं, अपोरुसेयंति निम्मियं (तम्मयं) जेण। इदमच्चंतविरुद्धं, वयणंच अपोरुसेयं च ॥३१॥
* ध्ययने जं वुच्चइत्ति वयणं, पुरिसाभावे उ नेयमेवंति । ता तस्सेवाभावो, नियमेण अपोरुसेयत्ते।३। (युग्मम् )
१सूत्रम् जे हेतुथी अपौरुषेय वेद वचन निर्माण करायेल छे तेथी प्रमाणभूत नथी, कारण के वचन अने अपौरुषेय आ बंने परस्पर अत्यंत विरुद्ध छे. जे बोलाय छे ते वचन, पुरुषना अभावमां तो वचन ज क्याथी होय ? ते कारणथी अपौरुषेयत्वमां चोक्कस वचननो ज अभाव छ ( ३१-३२). अथवा आ ( वक्ष्यमाण) भगवाने कलुं छे, पण भीत वगेरेथी नीकळेलु नथी. कोइक आ प्रमाणे स्वीकारे छ-ध्यानमां प्राप्त थयेल अने ते प्रभु स्थिर थये छते चिंतामणि रत्ननी माफक यथाकाम (इच्छित जेम थाय तेम ) भींत बगेरेथी पण देशनाओ नीकळे छ (१). आ वर्णननो अस्वीकार करवा माटे कहे छ के-भीत वगेरेथी नीकळेल देशनाओ तो आप्तपुरुषवडे उपदेशायेली नहिं थाय, ते देशनाओमा विश्वास पण नहि थाय. कारण के आ देशनाओ कोणे कहेली छे तेवी शंका पण प्रगटशे. (२)
बधा पदना समुदायवडे पोतानी उद्धताईनो त्याग करवाथी गुरुना गुणोनी प्रभावनामां तत्पर एवा पुरुषोए शिष्यो माटे देशना करवी एम कहां. एवी रीते देशना आपवाथी शिष्यो गुरुओने विषे भक्तिपरायण थाय, भक्तिपरायणतावडे विद्यादिनी पण सफळता थाय. यदुक्तं१. ताल्बादि स्थानजन्य वचन छे अने अपौरुषेयमां तात्वादि स्थाननो अभाव होवाथी वचननो उच्चार न थइ शके नहि.
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