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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie KAMXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX 'जंवू'इत्यादि० सर्वदा 'सुसममुसमंति० पहेला आरा जेवो जे विपाक ते सुषमसुषमा तेना संबंधवाळी जे ऋद्धि ते सुपमसुषमज, ते उत्तम ऋद्धिने-प्रधान ऐश्वर्य ने अर्थात् उच्च आयुष्य, कल्पवृक्षे आपेल भोग अने उपभोगादिकने प्राप्त थया छता, ते भोगो प्रत्ये अनुभव करता थका विचरे छे, पण सत्ता मात्रथी नहिं, अर्थात् वेदे छे अथवा सुपमसुषम नामना काल विशेपने पामेला अने उत्तम ऋद्धिन अनुभवता थका रहे छे. कडुं छे केदोसुवि कुरासु मणुया, तिपल्लपरमाउणोतिकोसुच्चा। पिट्टिकरंडसयाई,दो छप्पन्नाइं (त) मणुयाणं ॥६६॥ सुसमसुसमाणुभावं, अणुभवमाणाणऽवच्चगोवणया। अउणापन्नदिणाई, अट्टमभत्तस्स आहारो॥६७॥ देवकुरु अने उत्तरकुरु ए बे क्षेत्रने विषे मनुष्यो उत्कृष्ट त्रण पल्योपमना आयुष्यवाळा [जघन्यथी पल्यना असंख्य भाग न्यून पण पल्यनुं आयुष्य होय छे. ], त्रण कोश ऊंचा छे. ते मनुष्योने बशें छप्पन पांसळी होय छे. सुपमसुषम-अत्यंत सुखने अनुभवे छे, तथा अपत्य( संतान )नी प्रतिपालना ओगणपञ्चाश दिवस करे छे. बळी अट्ठम भक्त आहार करे छे. दक्षिणमा देवकुरु अने उत्तरकुरु क्षेत्र उत्तरमां, ते बन्नेमा उपरोक्त 'जंबू' इत्यादि० 'सुसमत्ति० सुषमा-बीजा आरा जेवू सुख, शेष तेमज जाणवू. कयुं छे केहरिवासरम्मएसु, आउपमाणं सरीरउस्सेहो। पलिओवमाणि दोन्नि उ, दोन्नि य कोसासमा भणिया ६८ छट्ठस्स य आहारो, चउसट्टिदिणाणुपालणा तेसिं । पिट्टिकरंडाण सय, अट्ठावीसंमुणेयव्वं ॥ ६९ ॥ XxxxxxxxxxXXXXXXXXXXXXXXXXX KKKKKXXX For Private and Personal Use Only
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
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