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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कछे, ते आ-अर्थावग्रह अने व्यंजनावग्रह (१९), अश्रुतनिश्रितमतिज्ञानना पण एवी रीते वे भेद जाणवा (२०), श्रुतज्ञान प्रकारे कछे, ते आ-अंगप्रविष्ट अने अंगबाह्य (२१), अंगबाह्यश्रुत वे प्रकारे कह्युं छे, ते आ-आवश्यक अने आवश्यकव्यतिरिक्त (२२), आवश्यकव्यतिरिक्त श्रुत वे प्रकारे कां छे, ते आ-कालिक अने उत्कालिक श्रुत छे (२३) (सू० ७१) टीकार्थ :- 'दो नाणे' इत्यादि-सूत्रो सुगम छे. विशेष बोध ते ज्ञान. अश्नाति (त्रिभुवननी ऋद्धि प्रत्ये ) भोगवे छे अथवा ज्ञानवडे पदार्थो प्रत्ये व्याप्ति करे छे, ते कारणथी अक्ष-आत्मा, ते प्रत्ये जे इंद्रिय अने मननी अपेक्षा विना वर्ते छे | ते प्रत्यक्ष ज्ञान अर्थात् अंतर (व्यवधान) रहितपणाए पदार्थने साक्षात् करवामां चतुर छे. भाष्यकार कहे छे:अक्खो जीवो अत्थ-व्वावणभोयणगुणण्णिओ जेण । तं पड़ वट्टइ नाणं, जं पच्चक्खं तामिह तिविहं ॥ १० ॥ प्रत्यक्षज्ञान अवधि वगेरे त्रण प्रकारे छे, शेष उपरोक्त छे. परेभ्यः - बीजाथी जीवनी अपेक्षाए पुद्गलमय होवाथी द्रव्येंद्रिय अने अक्षस्य जीवने जे ज्ञान थाय ते द्वाराए निरुक्तिवशथी परोक्षज्ञान. भाष्यकार कहे छे:अक्स पोग्गलकया, जं दुव्विदियमणा परा तेण । तेहिंतो जं नाणं, परोक्खामिह तमणुमाणं व ॥ ११ ॥ द्रव्येंद्रिय अने मन पुद्गलमय छे तेथी ते आत्माथी भिन्न छे, माटे इंद्रियो अने मनथी थतुं जे मति अने श्रुत ज्ञान ते अहिं अनुमान प्रमाणनी माफक परोक्ष ज्ञान कहेलुं छे. अथवा परै:-इंद्रियो अने मननी साथै उक्षा - जन्यजनकभावरूप छे माटे परोक्ष संबंध छे. अर्थात् जीवने परोक्ष ज्ञान, इंद्रियो अने मनना व्यवधान (अंतर) वडे पदार्थने जणा For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ***************
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
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