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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ६२॥ १ स्थानाध्ययने 1 स्कंधविशेष स्य एकन्नम् ५२-५६ सूत्राणि XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, नह एगचक्केण रहो पयाइ । अंधोय पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥ ११९ ॥ तीर्थकरो ज्ञान-क्रियाना संयोगनी सिद्धिथी फळ-मोक्षने कह छे. जेम रथ एक पैडावडे चालतो नथी नेम मात्र ज्ञान के क्रियाथी मोक्ष प्राप्त थतुं नथी. आंधळो अने पांगळो बन्ने वनमा आवीने साथे जोडाया त्यारपछी ज नगरमा प्रवेश्या. (११९ ) वळी भाष्यकारे कहेल छ के नाणाहीणं सब्ब, नाणणओ भणति किं च किरियाए ? । किरियाए करणनओ, तदुभयगाहो य सम्मत्तं ॥ १२० ॥ ज्ञाननय, सर्व सुख ज्ञानने ज आधीन कहे छे, परंतु क्रियावडे शुं ? अर्थात् क्रियाथी शुं थवानु छ ? क्रियानय, क्रियाथी ज सुख कहे छे. ज्ञान अने क्रिया ए बन्ने नय ग्रहण करनारने सम्यक्त्व छ-यथार्थपणुं छे. अथवा नैगमादि सात नयो पण सामान्यनयमां अने विशेषनयमां अंतर्भूत थाय छे. तेमां सामान्यनय, प्रस्तुत अध्ययनमां कहेला आत्मादि पदार्थोनुं एकपणु ज माने छे, कारण के सामान्यनयर्नु सामान्यवादीपणुं छे. सामान्यवादी कहे छे-सामान्य ज एक, नित्य, अवयव रहित, निष्क्रिय अने व्यापक-सर्वगत छे. सामान्य रहित होवाथी विशेष नथी. अहिं जे सामान्य रहित छे ते वस्तु ज नथी, ॥६२॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
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