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'परिग्रहारम्भ० ' श्लोक आप्यो हतो, पछी तेओश्रीए ते श्लोकना १०० अर्थ करी आप्या. आ प्रमाणे आ ग्रन्थरन्ननी उत्पत्ति थइ छे.
आ ग्रन्थमा २४ जिन-जिनवाणी-शासनदेवी-पञ्चपरमेष्ठि-ब्रह्माविष्णु-महेश्वर-पार्वती-लक्ष्मी-सरस्वती-ज्ञान-काम-विजयहीरसूरि विजयसेनसूरि-अकबरनप-नवग्रह-सुर-८ दिक्पाल-राम-१४ स्वप्नअने बुद्धिसागरगुरुर्नु वर्णन छ ।
संशोधनमा त्रण प्रतिओ प्राप्त थइ हती। एक श्री नित्य-विनयमणि-जीवन पुस्तकालय कलकत्तानी, बीजी जैनानन्दपुस्तकालय सुरतनी, अने त्रीजी साहित्यसंशोधननिष्णात-विद्वद्वर्य मुनिराजश्री पुण्यविजयजी महाराज तरफथी।
तेना आधारे आ ग्रन्थनुं सावधानीथी संशोधन करवामां आव्युं छे, छतां कोइ भूल रहेली जणाय तो सुज्ञोए सुधारी वांचवू ए अभ्यर्थना ।
लि० संशोधक।
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