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किञ्चिद् वक्तव्य |
जैनशासनरूपमहासागरमा विबुधजनविरचित भिन्नभिन्नविष यना घणा ग्रन्थरत्नो विद्यमान छे । परंतु तेमां अनेकार्थविषयना ग्रन्थरत्नो विरल छे, तेमां पण एक श्लोकना शतार्थवाला ग्रन्थो तो अत्यन्त विरल छे । तेमांनो आ ग्रन्थरत्न छे ।
आ ग्रन्थरत्ननुं नाम शतार्थविवरण छे, अने ते दीपकशब्दनी जेम यथार्थ छे । कारणके आ ग्रन्थमां कलिकाल सर्वज्ञश्री हेमचन्द्राचार्यविरचित योगशास्त्रना प्रकाश २ ना १२ मा ' परिग्रहारम्भ० ' लोकना एकसो अर्थ करवामां आव्या छे ।
आ ग्रन्थरत्नना कर्ता पण्डितप्रवर श्रीमान् मानसागरगणिवर छे । तेमना गुरुवर्यं तपागच्छीय कविचक्रचक्रवर्ति पण्डित श्रीबुद्धिसागर गणिवर छे । आ बाबत आ ग्रन्थनी प्रशस्ति जोवाथी स्पष्ट थाय छे ।
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आ ग्रन्थनी रचना अकबरनृपप्रतिबोधक आचार्य श्री विजयहीरसूरीश्वरजीना राज्यकालमां करवामां आवी छे । आ बाबत पण प्रशस्ति जोवाथी स्पष्ट छे । आ उपरथी आ ग्रन्थकारनो सत्तासमय श्री विजयहीरसूरीश्वरजीनो सत्तासमय जे १७ मी सदी छे तेज छे ।
आ ग्रन्थनुं उत्पत्तिबीज - श्री विजयहीरसूरीश्वरजी महाराजजीए पण्डित श्रीमान् मानसागरगणिवरने परीक्षामाटे योगशास्त्रानो
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