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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ।। सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान ८१ ।। AppANAPOORPORNPOS SIOPOSAGARPRINCIPROGNApropean आहारकके अनुवादकरि आहारकनिका मिथ्यादृष्टि आदि क्षीणकपायपर्यंतनिका गुणस्थानवत् क्षेत्र है । सयोगकेवलीनिका लोककै असंख्यातवै भाग है । अनाहारकनिका मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि अयोगकेवलीनिका गुणस्थानवत् क्षेत्र है । सयोगकेवलीनिका लोकका असंख्यातवा भाग है । अर प्रतर अपेक्षा अर पूरण अपेक्षा सर्वलोक है । ऐसें क्षेत्रका निर्णय कीया ॥ आगें स्पर्शन कहिये हैं । तहां लोकके एक एक राजू घनरूप खंड कल्पिये तब तीनमै तियालीस राजू होय । ताविर्षे जीव स्पर्शन करै है । सो च्यारि प्रकार है । स्वस्थानविहार अपेक्षा, परस्थानविहार अपेक्षा, मारणांतिकसमुद्धात अपेक्षा, उत्पाद अपेक्षा । सो कहिये हैं । सा प्ररूपणा दोय प्रकार है । सामान्यकरि गुणस्थाननिविर्षे, विशेषकरि मार्गणानिविर्षे । तहां प्रथमही सामान्यकरि मिथ्यादृष्टिनिकरि सर्वलोक स्पर्शिये है । सासादनसम्यग्दृष्टिनिकरि लोकका असंख्यातवा भाग स्वस्थानविहारकी अपेक्षा है । अर परस्थानविहार अपेक्षा सासादनवर्ती देव तीसरी पृथिवीतांई विहार करै सो दोय राजू तो ए भये । अर अच्युतस्वर्गतांई ऊपरी विहार करै तातें छह राजू ए भये । | ऐसें आठ राजू स्पर्शे । ऐसें इनिळू आठ चतुर्दश भाग कहे । तहां त्रमनाडी चोदह राजू है । सो | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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