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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६४२ ॥
असंयमका अभाव भये तिनका संवर होय । अगिले प्रमत्तसंयतआदि गुणस्थाननिवि तिनका बंध नाहीं है। बहुरि प्रमादकरि सहित जीवकै असातावेदनीय अरति शोक अस्थिर अशुभ अयश कीर्ति ए छह प्रमादके निमित्ततें बंध होय थे, सो प्रमादका अभाव भये तिनका संवर होय है । अप्रमत्तआदि गुणस्थाननिमें तिनका बंध नाहीं होय है ॥
बहुरि देवायुकाभी बंध प्रमत्तवाला करै है । अर अप्रमत्तभी ताके निकटवर्ती है, तातें ताकैभी बंध हो है। आगे अपूर्वकरणआदिविर्षे ताकाभी बंध नाहीं हो है । बहुरि जिस कर्मका आश्रव कषाय होतेही होय है, तिनका प्रमादादिकके अभावहीते अभाव नाही होय है । जातें जे कषाय प्रमादादिभावकरि रहित तीव्र मध्य जघन्य भावकरि अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसांपराय इन तीनि गुणस्थाननिमें तिष्ठे हैं तहां अपूर्वकरणके आदिविर्षे संख्यातभागविर्षे दोय प्रकृति निद्रानिद्रा प्रचला ए बंध है। ताके आगे संख्यातभागविर्षे तीस प्रकृति बंधै हैं, तिनके नाम देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियक आहारक तैजस कार्मण ए च्यारि शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियक आहारकशरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय,
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