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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SAFAIRRORAPARIVARASPARAGIPARAGRAPIONORPORANAPANAGAR ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता || अष्टम अध्याय ॥ पान ६१८ ॥ याका अर्थ- ए गतिआदि वियालीस भेद नामप्रकृतिके हैं। जहां जाके उदयतें आत्मा अन्यपर्यायकू गमन करै, सो गति है । सो च्यारिप्रकार है। नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, | देवगति ऐसें । बहुरि जिनविर्षे अव्यभिचारी समानभावकरि एकतारूप भया जो अर्थका स्वरूप | सो जाति है । सो पांचप्रकार है एकेन्द्रियजातिनाम, द्वीन्द्रियजातिनाम, त्रीन्द्रियजातिनाम, चतुरिन्द्रियजातिनाम, पंचेन्द्रियजातिनाम । बहुरि जाके उदयतें आत्माके शरीर निपजै, सो || शरीरनाम है । सो पांचप्रकार है औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस , कार्मण । बहुरि जाके | | उदयते अंग उपांग निपजै, सो अंगोपांगनाम है । सो तीनिप्रकार है औदारिक वैक्रियक आहारक | ऐसें । बहुरि जाके उदयतें नेत्रादिककी यथास्थान तथा यथाप्रमाण निष्पत्ति होय , सो निर्माणनाम | है । ताके दोय भेद हैं स्थाननिर्माण प्रमाणनिर्माण । बहुरि शरीरनामकर्मके उदयके वशतें पाये | जे पुद्गलके स्कंध तिनका परस्पर प्रदेशनिका अनुप्रवेश होय बंधान होय, सो बंधननाम है। जो || शरीरके नामतेंही जिनके नाम ऐसे पांचप्रकार हैं ॥ बहुरि जाके उदयतें औदारिकआदि शरीरनिके परमाणुनिके स्कंध परस्पर अनुप्रवेशतें ही एकरूप होय छिद्ररहित होय मिलै, सो संघातनाम है । सोभी शरीरनामधारक पांचप्रकार है । For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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