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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 2 excl broers www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ५९५ ॥ २ एक अनेक, ३ नित्य अनित्य, ४ भेद अभेद, ५ अपेक्ष अनपेक्ष, ६ दैव पौरुष, ७ अंतरंग बहिरंग, ८ हेतु अहेतु, ९ अज्ञानतैं बंध स्तोकज्ञानतें मोक्ष, १० परके दुःख करै अर आपके सुख करे तो पाप अर पर सुख करे आपके दुःख करे पुण्य । ऐसें दस पक्षविषै सप्तभंग लगाये सत्तरि भंग भये । तिनका सर्वथा एकांतविषै दूषण दिखाये हैं। जानें ए कहे सो तौ आप्ताभास है अर अनेकांत साधे हैं ते दूषणरहित हैं, ते सर्वज्ञवीतरागके भाषे हैं। तातें अनेकान्तका कहनेवाला सत्यार्थ आत है, ऐसें सम्यक् अर मिथ्याका निर्णय कीया है । सो देवागमस्तोत्रकी टीका अष्टसहस्रीतें जानना ॥ बहुरि तीनसै तरेसठ कुवादके अचार्य इस कालमें भये हैं, तिनके केतेकनिके नाम • राजवार्तिक तथा गोमटसारतें जानने । तिनमें केई अज्ञानवादी चरचा करे हैं, जो, वेदमें क्रिया आचरण यज्ञादि कह्या है, तिस विधानसूं क्रिया करनेवाले अज्ञानी कैसे ? ताकूं कहिये, जो, प्राणीनिके वध करनेमें धर्मसाधनका तिनका अभिप्राय है, तातें ते अज्ञानी हैं । इहां वह कहै, जो, अपौरुषेय वेद है तामें कर्ताका दोष नाहीं आवै, तातैं प्रमाण है, तार्ते तिस आगमप्रमाणतें प्राणीनिका वध करना धर्म है। ताकूं कहिये, जो, जामें प्राणीनिका वध करना धर्म कह्या, सो आगमही नाहीं, सर्वप्राणीनिका हित कहै सो आगम है । वेदमें कहूं तो हिंसाका निषेध For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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