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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra HAAR • www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५७९ ॥ - सो है । ऐसें सामायिकके अतीचार हैं । आगें प्रोषधोपवासके अतीचार कहै हैं॥ अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादर स्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३४ ॥ याका अर्थ — अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित कहिये विना नीका देख्या तथा विना नीका झाड्या पृथ्वीपरि क्षेपना उठावना सांथरा करना तीनि तौ ए अरु प्रोषधविषै उत्साह नाहीं निरादरसूं करना तथा क्रियामें भूली जाणा ए पांच प्रोषधोपवासके अतिचार हैं। जहां प्रोषधउपवासकी प्रतिज्ञा लेकरी जहां बैठना तिस भूमिविषै जीव है कि नाहीं हैं ऐसें नेत्रनिकरि देखना, सो प्रत्यवेक्षणा कहिये | बहुरि कोमल पीछी आदि उपकरणकरि झाडना सो प्रमार्जन है । तिन दोऊनिका अभाव उत्सर्ग कहिये भूमिविषै मलमूत्र क्षेपणा | आदान कहिये अरहंत आचार्य की पूजाका उपकरण तथा गंधमाल धूपादि सामग्री तथा अपने धारणके वस्त्र आदिकका उठावना लेना, सो । संस्तरोपक्रमण कहिये भूमिपरि बिछावणा आदिकरि सांथरा करणा ऐसें तीनि तौ ए भए । बहुरि क्षुधाकरि पीडित होने तें जो उपवास में आवश्यक आदि क्रिया करनी तिनविषै उत्साह नाही- निरादरतें कालपूरण करना, सो अनादर है । बहुरि क्रिया यादि न राखणी भूलि जाना, सो स्मृत्यनुपस्थान है । ऐसें ए पांच अतीचार प्रोषधोपवासके हैं ॥ For Private and Personal Use Only ext exatorex
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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